Thursday, March 12, 2009

ज़िन्दगी के रूप में सजा पाई है

हे खुदा कैसी तेरी खुदाई है
बेकसूर हूँ फ़िर भी सजा पाई है,
बेवफाई का इल्जाम नहीं कोई
चारों ओर फ़िर क्यों रुसवाई है।
जो चाहा वो मिला नहीं
भला करूँ तो कोई सिला नहीं
ये ज़िन्दगी है या
ज़िन्दगी के रूप में सजा पाई है।

1 comment:

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

आप की सुन्दर अभिव्यक्ति में बहुत गहरी बात है, मैं तो यही कह सकता हूं ,
"गुनाहे बेलज्जत ज़ुर्म बे मज़ा,
कैसा मुकदमा काहे की सज़ा."

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