Thursday, June 30, 2011
Saturday, June 25, 2011
मेरी कसम एक रोटी तो और लो
श्रीगंगानगर—पति भोजन कर रहा है। पत्नी उसके पास बैठी हाथ से पंखा कर रही है। जो चाहिए खुद परोसती है मनुहार के साथ। “एक रोटी तो और लेनी पड़ेगी। आपको मेरी कसम।“ पति प्यार भरी इस कसम को कैसे व्यर्थ जाने देता। रोटी खाई। तारीफ की। काम पर चला गया। यह बात आज की नहीं। उस जमाने की है जब बिजली के पंखे तो क्या बिजली ही नहीं हुआ करती थी। संयुक्त परिवार का जमाना था। रसोई बनाता चाहे कोई किन्तु खिलाने का काम माँ का और शादी के बाद पत्नी का था। पति रोटी आज भी खा रहा है। मगर पत्नी घर के किसी दूसरे काम में व्यस्त है। रोटी,पानी,सब्जी,सलाद जो कुछ भी था ,लाकर रखा और काम में लग गई। पति ने कुछ मांगा। पत्नी ने वहीं से जवाब दिया... बस करो। और मत खाओ। खराब करेगी। “तुमको मेरी कसम। आधी रोटी तो देनी ही पड़ेगी। पति ने कहा।“ “ नहीं मानते तो मत मानो। कुछ हो गया तो मुझे मत कहना। यह कहती हुई वह आधी रोटी थाली में डालकर फिर काम में लग गई।“ पति कब पेट में रोटी डालकर चला गया उसे पता ही नहीं लगा । तब और आज में यही फर्क है। रिश्ता नहीं बदला बस उसमें से मिठास गायब हो गई। जो रिश्ता थोड़ी सी केयर से मीठा होकर और मजबूत हो जाता था अब वह औपचारिक होकर रह गया। यह किसी किताब में नहीं पढ़ा। सब देखा और सुना है। रिश्तों में खिंचाव की यह एक मात्र नहीं तो बड़ी वजह तो है ही। एक दंपती सुबह की चाय एक साथ पीते हैं। दूसरा अलग अलग। एक पत्नी अपने पति को पास बैठकर नाश्ता करवाती है। दूसरी रख कर चली जाती है। कोई भी बता सकता है कि पहले वाले दंपती के यहाँ ना केवल माहौल खुशनुमा होगा बल्कि उनके रिश्तों में मिठास और महक होगी जो घर को घर बनाए रखने में महत्वपूर्ण पार्ट निभाती है। क्योंकि सब जानते हैं कि घर ईंट,सीमेंट,मार्बल,बढ़िया फर्नीचर से नहीं आपसी प्यार से बनते हैं। आधुनिक सोच और दिखावे की ज़िंदगी ने यह सब पीछे कर दिया है। यही कारण है कि घरों में जितना बिखराव वर्तमान में है उतना उस समय नहीं था जब सब लोग एक साथ रहते थे। घर छोटे थे। ना तो इतनी कमाई थी ना सुविधा। हाँ तब दिल बड़े हुआ करते थे। आज घर बड़े होने लगे हैं। बड़े घरों में सुविधा तो बढ़ती जा रही है मगर एक दूसरे के प्रति प्यार कम हो रहा है। बस, निभाना है। यह सोच घर कर गई है। पहले सात जन्म का बंधन मानते थे। अब एक जन्म काटना लगता है।
कुंवर बेचैन कहते हैं—रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर, अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए। एक एसएमएस...अच्छा दोस्त और सच्चा प्यार सौ बार भी मनाना पड़े तो मनाना चाहिए। क्योंकि कीमती मोतियों की माला भी तो टूटने पर बार बार पिरोते हैं।
Sunday, June 12, 2011
"कलेक्टर" से बात नहीं बनी
Monday, June 6, 2011
जूता फिर दिखाया गया
Sunday, June 5, 2011
सरकार कुछ भी कर सकती है
श्रीगंगानगर—सरकार कुछ भी कर सकती है। जो करना चाहिए वह करे ना करे लेकिन वह जरूर कर देगी जिसकी कल्पना करना मुश्किल होता है। बाबा रामदेव की अगवानी के लिए केंद्र के चार वरिष्ठ मंत्री दंडवत करते हुए हवाई अड्डे पहुंचे। यह पहली बार हुआ। बाबा ने तो क्या सोचना था, किसी राजनीतिज्ञ के ख्याल में भी ऐसा नहीं आ सकता कि चार बड़े मंत्री किसी के स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर आ सकते हैं। चलो इसे बाबा के चरणों में सरकार का बड़ापन मान लेते हैं। विनम्रता कह सकते हैं। शराफत का दर्जा दे दो तो भी कोई हर्ज नहीं। किन्तु कुछ घंटे के बाद ऐसा क्या हुआ कि सरकार का बड़ापन बोना हो गया। विनम्रता बर्बरता में बदल गई। शराफत के पीछे घटियापन नजर आने लगा। जिस सरकार के मंत्री दिन में किसी सज्जन पुरुष का सा व्यवहार कर रहे थे, रात को उनकी प्रवृति राक्षसी हो गई। रामलीला मैदान में रावण लीला होने लगी। सात्विक स्थान पर तामसिक मनोस्थिति के सरकारी लोग उधम मचाने लगे। सब कुछ तहस नहस कर दिया गया। जिस सरकार को जनता ने अपनी सुरक्षा के लिए चुना, उसी के हाथों उनको पिटना पड़ा। जिस बाबा के चरणों मे सरकार लौटनी खा रही थी उनको नारी के वस्त्र पहन कर भागना पड़ा। इससे अधिक किसी की ज़लालत और क्या हो सकती है। लोकतन्त्र में सरकार का इस प्रकार का बरताव अगर होता है तो फिर तानाशाही में तो पता नहीं क्या कुछ हो जाए। असल में बाबा योग सीखे और फिर सिखाते रहे। राजनीति के गुणा,भाग का योग उनको करना नहीं आया। राजनीति का आसान उनको आता नहीं था। यहीं सब गड़बड़ हो गया। उनको चार मंत्री आए तभी समझ जाना चाहिए था कि सब कुछ ठीक नहीं है। यह सब प्रकृति के विपरीत था। प्रकृति के विपरीत आंखों को,मन को सुकून देने वाला भी हो तो समझो कि कहीं न कहीं कुछ ना कुछ ठीक नहीं है। यह संभल जाने का संकेत होता है। बाबा नहीं समझे। गलत फहमी में रहे। वे ये भूल गए कि
जो लोग इस राष्ट्र को अपनी ही संपति समझते हैं वे अपने काले धन को राष्ट्रीय संपति घोषित करने की मांग क्यों मानेंगे? यह तो डबल घाटा हुआ। अरे भाई, इनके यहाँ तो केवल इंकमिंग ही है, आउट गोइंग वाला सिस्टम तो इनके जीवन में है ही नहीं । ये केवल और केवल लेना जानते हैं देना नहीं। जब इनसे जनता मांग करती है तो इनको ऐसे लगता है जैसे कोई इनकी संपति में से हिस्सा मांग रहा हो। फिर वही होता है जो रामलीला मैदान में हुआ। मजबूर कहते हैं—पूरी मैं दिल की छह करूँ या दुनिया की परवाह करूँ, तू बता मैं क्या करूँ। हक के लिए लड़ मरूँ या बैठा आह! भरा करूँ, तू बता मैं क्या करूँ।