Friday, July 27, 2012

कलेक्टर-पत्रकार उलझे प्रेस वार्ता में गरमा गर्मी


श्रीगंगानगर-मीडिया को प्रेस वार्ता के लिए बुलाकर आदेश निर्देश देने वाले जिला कलेक्टर अंबरीष कुमार की आज पत्रकारों से खूब गरमा गर्मी हुई। एक बार तो वार्ता में गए पत्रकारों ने कलेक्टर का बहिष्कार कर दिया। संभव है आगामी कुछ घंटों में फील्ड में रहने वाले पत्रकार जिला कलेक्टर के खिलाफ कोई बैठक कर कोई और निर्णय लें। पीआरओ सतीश सूद की मार्फत जिला कलेक्टर ने पत्रकारों को अतिक्रमण के मामले में कोई जानकारी देने के लिए बुलाया। अपनी आदत के अनुसार कलेक्टर ने पत्रकारों को कैमरे बंद करने के निर्देश दिये। पत्रकार भड़क गए। बात आगे बढ़ी तो कलेक्टर ने अप्रत्यक्ष रूप से धमकी भरे शब्दों में कहा कि पत्रकार क्या प्रकाशित करते हैं,वे सब जानते हैं। किसके प्लाट कहाँ है...किसने बेचे इसकी भी जानकारी उनको हैं। जांच करवाएँ तो बहुत कुछ सामने आएगा। कलेक्टर के इतना कहते ही पत्रकारों में आक्रोश पैदा हुआ। उन्होने एक स्वर में कलेक्टर से यही कहा कि आपने हमें धमकाने के लिए बुलाया है क्या....आप पहले हमारी जांच करवा लो उसके बाद ही बात करेंगे। बात इतनी अधिक बढ़ी की पत्रकार वार्ता उठाकर बाहर आ गए। नगर विकास न्यास के सचिव अशोक यादव और सतीश सूद ने पत्रकारों को बुलाया। मनाने की कोशिश की मगर कोई बात नहीं बनी। वार्ता में न्यास के चेयरमेन ज्योति कांडा भी थे। किन्तु वे कुछ नहीं बोले। पत्रकारों ने जिला कलेक्टर के व्यवहार की निंदा करते हुए इसे तानाशाही रवैया करार बताया है। खुद जिला कलेक्टर ने वेबसाइट से बात चीत में पत्रकारों से धम्की भरे लहजे में बात करने से इंकार किया। उन्होने कहा कि प्रेस वार्ता बंद होने के बाद कैमरे बंद करने को कहा था। अंबरीष कुमार ने कहा कि उन्होने सभी से प्रेम और आत्मीयता से बात की। ना तो किसी से चिल्ला कर बात की और ना ही गलत भाषा का प्रयोग किया। जिला कलेक्टर के अनुसार उन्होने पीआरओ और न्यास सचिव को सभी मनाने के लिए भेजा था लेकिन कोई आया नहीं।  ज्ञात रहे कि जब से अंबरीष कुमार जिला कलेक्टर बन कर यहाँ आए हैं तभी से उनका बरताव ऐसा है। मीडिया से सीधे मुंह बात नहीं करते। कांग्रेस लीडर अंबरीष कुमार की लल्ला लोरी कर खुश रखते हैं। खुद अंबरीष कुमार कांग्रेस लीडरों को कुछ नहीं समझते। अभी तक उन्होने तीन बार प्रेस को बुलाया। तीनों बार दिखावे के लिए कांग्रेस नेताओं को अपने साथ बिताया। पहली बार जगदीश जांदू को। दूसरी बार जगदीश जांदू,राजकुमार गौड़,पृथ्वीपाल सिंह और कश्मीरी लाल जसूजा को और आज शुक्रवार को ज्योति कांडा को। किन्तु ये कांग्रेस लीडर जिला कलेक्टर की हां में हां मिलाने के अलावा कुछ नहीं करते।

Thursday, July 26, 2012

जनता को बना रहें हैं सोनिया और मनमोहन सिंह


श्रीगंगानगर- दोनों बेहद खुश हैं। दोनों के यहां रोज दीवाली,होली,ईद है। इससे अधिक और क्या खुशी होगी कि एक सरकार में नहीं है फिर भी सरकार उसके इशारों पर चलती,बैठती,उठती है। दूसरा प्रधानमंत्री पद के काबिल नहीं फिर भी प्रधानमंत्री हैं। दोनों में से कोई राजनीतिक नहीं फिर भी हिंदुस्तान की राजनीति के सिरमौर हैं। एक दम सही आइडिया है सभी का...एक सोनिया गांधी...दूसरा मनमोहन सिंह। जिस काल में खुद की संतान माँ-बाप का कहा नहीं मानती उस दौर में हिंदुस्तान जैसे देश का प्रधानमंत्री सोनिया गांधी के  कहे से बैठता,उठता और बोलता है। संभव है कि किसी समय राहुल गांधी अपनी मम्मी का कोई कहा टाल दे लेकिन मनमोहन सिंह बिलकुल ऐसा नहीं करेंगे। बेटा बेशक आँख दिखा दे किन्तु मनमोहन सिंह कभी नजर नहीं उठाते सोनिया जी के सामने। देश का बंटाधार हो तो हो,सोनिया गांधी की बला से।  क्यों बदले सोनिया मनमोहन सिंह को।कलयुग में इस भाव में आज्ञाकारी,सुशील,ईमानदार,कर्तव्यनिष्ठ,मौन रहने वाला कर्मचारी मिलता कहां है। नरेगा के कारण तो और भी मुश्किल है।आप मनमोहन सिंह को कम मत समझो। पढे लिखे हैं। बड़े बड़े पद पर रहें हैं। वे भी समझते हैं सब बात। क्या हुआ जो कमरे में सोनिया गांधी को दंडवत करना पड़ता है। क्या खास बात है जो पर्दे के पीछे सोनिया जी किसी गलती पर दो चार पाँच दंड बैठक लगवा लेती हैं। उनकी डांट सुननी पड़ती है। मंच पर तो मनमोहन सिंह ही हीरो हैं। बंद कमरे में कान पकड़ने से कौनसी शान घटती है। बाहर दो दुनिया मनमोहन सिंह के कदमों में लाल कालीन बिछाती  हैं। इस बात का भी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि लोग कठपुतली,गुड्डा कहते हैं। मनमोहन सिंह तो बस ये ध्यान रखते हैं...कुछ तो लोग कहेंगे....लोगों का काम है कहना। फिर हमारे यहां तो कहावत है कि दूध देने वाली गाय की तो लात भी  सहनी ही पड़ती है।  दूध के लिए पशु की लात सहने वाले लोगों के इस देश में प्रधानमंत्री पद के लिए किसी भद्र महिला से डांट फटकार सुननी पड़े तो  कौनसा पहाड़ टूटता है।  इस देश में तो ऐसे ऐसे सेवक हुए हैं जिन्होने अपने नेता के कहने पर झाड़ू लगाने तक की बात कही। रसोई में काम करके इंसान कहां से कहां पहुँच गया। मनमोहन सिंह इसी श्रेणी के प्रधानमंत्री हैं तो क्या खास बात है। दोनों ज्ञानवान हैं। पढे लिखे हैं। सूझवान हैं। अच्छे संस्कारों वाले हैं। सब जानते हैं कि वे क्या कर रहें हैं। किन्तु दोनों की भलाई इसी में हैं। ये कहने की हिम्मत तो नहीं कि वे एक दूसरे को ...बना रहें हैं। हां,देश के हालत से ये जरूर साबित होता हैं कि दोनों एक दूसरे को यूज कर अपनी अपनी सत्ता का आनंद ले रहें हैं। सत्ता के लिए इनको ना तो अपने आत्म सम्मान से कोई मतलब है। है ना जनता के दुख दर्द से। एक को हिंदुस्तान जैसे महान देश का प्रधानमंत्री पद मिला हुआ है और दूसरे को एक आज्ञाकारी बेटे से भी अधिक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री। सावन में कचरा पुस्तक की लाइन पढ़ो....मन मेरा तरसे नैना बरसे,आजा गौरी अब के सावन। सब के आँगन देखो पायल बाजे,छम छम को तरसे मेरा आँगन।

Monday, July 23, 2012

नर सेवा से पुलिस के चेहरे को निखार रहा है कांस्टेबल प्रमोद



श्रीगंगानगर- पूरी तरह से कुष्ठ रोगी। शरीर पर जगह जगह हुए घाव में रिस्ता तरल पदार्थ। जिन पर हर  वक्त मक्खियाँ की भिनभिनाहट। कुष्ठ के कारण हाथ पैर खुर रहें हैं। आँखों से क्या लगभग पूरे शरीर से लाचार। ट्राईसिकल पर ही गुजरती है उसकी जिंदगी। इसका ठिकाना है गंगा सिंह चौक। कोई भी व्यक्ति उसके निकट एक पल बिताने से पहले सोचे। परंतु एक व्यक्ति ऐसा भी है जो इसकी सेवा को अपना अहोभाग्य मानता है। व्यक्ति भी कौन! पुलिस का सिपाही। जी, उसी पुलिस का सिपाही, जिसके बारे में बुरी से बुरी बात कहने में कोई संकोच नहीं करता। हां,डरता जरूर है। यह सिपाही शनिवार अथवा इतवार को सुबह गंगासिंह चौक पहुंचता है। उसकी ट्राईसिकल को खुद ठेलता हुआ पुराने हॉस्पिटल लाता है। फिर शुरू होती है उसकी सेवा। उसे साइकिल से उठाकर एक पत्थर पर बैठाता है। उसे मल-मल कर नहलाता है। जैसे कोई माँ अपने बालक को स्नान करवाती है। उसके घावों पर मरहम लगाएगा। उसको देने वाली दवाई देगा। कपड़ों को धोएगा। ट्राईसिकल का सामान व्यवस्थित करेगा। लगभग एक से ढेढ घंटा उसको इस काम में लगता है। फिर उसको उसी प्रकार गंगा सिंह चौक पर छोड़ के आएगा। रास्ते में एक खोखा पर वह बाल्टी-मग रख देगा जो आते समय उसने ली थी। मजाल है जो इस सेवा के समय सिपाही के चेहरे या जुबान पर कोई खिझ,झुंझलाहट,हिचकिचाहट,घिन दिखाई दे या किसी को महसूस हो। उसे कोई देख रहा है तो कोई बात नहीं नहीं देख रहा तो कोई फर्क नहीं। उसकी सेवा इसी प्रकार होती है। कई माह से सिपाही चुपचाप यह सब उस दौर में कर रहा है जिस दौर में कोई किसी को एक रुपया भी दे तो बजा कर कर देता है ताकि सभी को पता लग जाए। यह सिपाही.....शांत मन से बिना किसी को बताए...लगा है ऐसे व्यक्ति की सेवा में जिसे वक्त ने हर प्रकार से मोहताज बना दिया। प्रमोद नामक यह सिपाही एसपी ऑफिस में है। प्रमोद जी ने ढाबे पर इस व्यक्ति के खाने का इंतजाम कर रखा है। प्रमोद जी कहते हैं....सभी के लिए तो कुछ करने की सामर्थ्य नहीं...एक की ज़िम्मेदारी ईश्वर ने मेरे निमित की है। देखें कितने दिन यह सेवा कर पाऊँगा। प्रमोद जी ने विनम्रता से आग्रह किया कि यह सब किसी को पता ना लगे। लेकिन आग्रह ना मानने को विवश हूं। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के बारे में सबको पता लगना चाहिए जो निस्वार्थ भाव से किसी लाचार की सेवा कर रहा है ताकि कोई तो उससे प्रेरित हो सके। आज भी प्रमोद जी अपना काम करके चुपचाप चले जाते अगर वे हॉस्पिटल में डॉ नरेश बंसल से इंजेक्शन के सिलसिले में ना मिलते। डॉ बंसल ने मुझे बताया और मुझे अवसर मिला प्रमोद को यह सेवा करते हुए देखने का। प्रमोद जी की सेवा को कोई भी नाम,ईनाम,सम्मान देने से प्रमोद का नहीं बल्कि उस सम्मान,इनाम और नाम का मान बढ़ेगा। क्योंकि कुछ इंसान ऐसे होते हैं जिनके पास जाकर मान,सम्मान,ईनाम खुद गौरवान्वित होते हैं। [सॉरी प्रमोद जी मुझे लिखना पड़ा।]


Thursday, July 19, 2012

वक्त ने बदल दी मरघट की परिभाषा



श्रीगंगानगर-बात एक प्रसंग से शुरू करते है। परदेशी कबीर जी के घर गया। कबीर जी थे नहीं। उनकी पत्नी ने बताया कि वो तो अंतिम संस्कार में मरघट गए हैं,आप रुको,वो थोड़ी देर में आ जायेंगे। परदेशी ने कहा, नहीं मुझे जाना है। मैं मरघट होता हुआ चला जाऊंगा। बस मुझे कबीर जी की पहचान बता दो! कबीर जी की पत्नी ने बताया कि कबीर जी के सिर पर कलंगी उनकी पहचान है। परदेशी मरघट चला गया। वहां था सन्नाटा। लकड़ियों का चटकना,कुत्तों का भौंकना,सिसकियाँ इस सन्नाटे को तोड़ रही थी। चिता के चारों तरफ शोकाकुल लोग थे। लेकिन ये क्या....सभी  कलंगी वाले थे। परदेशी सोचने लगा, कबीर जी की पत्नी ने तो बताया था कि कबीर जी कलंगी वाले होंगे।  यहां तो सभी के कलंगी हैं। खैर,परदेशी रुका। संस्कार पूरा हुआ। लोगों ने अंतिम श्रद्धांजली दी और जाने लगे। परदेशी को और अचरज हुआ। जैसे जैसे लोग मरघट से निकल रहे थे वैसे वैसे उनकी कलंगी गायब हो रही थी। बस एक व्यक्ति बचा कलंगी वाला। निश्चित तौर पर  वे कबीर जी ही थे। परदेशी ने कबीर जी को प्रणाम किया। कलंगी होने,खोने के  प्रति जिज्ञासा प्रकट की। कबीर जी बोले, मरघट में चिता के पास खड़े लोग मौत से डरे हुए ईश्वर के ध्यान में थे। वे सांसारिक  मोह,माया,काम,क्रोध से दूर थे। तब ईश्वर की दृष्टि में सभी समान थे। इसलिए सभी के कलंगी थी।  परंतु मरघट से बाहर आते ही सब सांसरिक प्रपंच में लग गए तो ईश्वर से उनका नाता टूट तो कलंगी भी जाती रही.......
वर्तमान में ना तो मरघट रहे ना मरघट और चिता की मर्यादा। मरघट पिकनिक स्पॉट और जन संपर्क का माध्यम में बदल गए। शोक ग्रस्त परिवार के समक्ष हाजिरी लगाई और काम समाप्त। चिता जल रही है....किसी को शोक है...मरघट की गरिमा है...मर्यादा है उससे किसी को कोई मतलब ही नहीं रहा। मोबाइल फोन बज रहें हैं। कारोबार हो रहा है। निंदा चुगली...हंसी ठट्ठा चल रहा है। पार्क शानदार है...सब बैठे हैं अलग अलग ग्रुपों में। जाने वाले की अच्छाई...बुराई...उसके परिवार की कोई बात नहीं। जाने वाला समाज के लिए क्या करके गया....नहीं कर सका....कोई मतलब नहीं। ठीक है मरने वाले के साथ नहीं मर सकते। शो मस्ट गो ऑन।  परंतु चिता और मरघट की  मर्यादा तो कायम रख सकते हैं। मोबाइल मे साइलेंट मोड होता है। हंसी ठट्ठे की आवाज कम करने में क्या बुराई है? कारोबार की बात भी धीरे धीरे हो सकती है। राम राम नहीं करना है ना करो...किन्तु ऐसे आचरण से तो बचें जिससे शोक संतप्त परिवार की भावना आहत हो। वक्त ने मरघट को मरघट तो नहीं रहने दिया किन्तु इसे मर्यादा हीन गरिमाहीन  पिकनिक स्पॉट या चाय,काफी का अड्डा तो मत बनने दो। एक यही तो जगह है जहां इंसान अपना अंतिम समय देखता है। मौत से रूबरू होता है। किन्तु हमने कुछ भी ऐसा नहीं छोड़ा जिससे इंसान दो घड़ी  चिता के समक्ष खड़ा हो मनन कर सके अपने बारे में। लोक परलोक के बारे में। मरघट में तो मौत का भय होना स्वाभाविक है पिकनिक स्पॉट पर मौत का भय कहाँ से आएगा। वहाँ तो मस्ती और उल्लास होगा। चाहे कम हो चाहे अधिक। विकास समय की मांग है। लेकिन ऐसा विकास किस काम का जो मूल ही बदल दे।  ऐसा ही हुआ इस क्षेत्र में हर मरघटों के साथ। शबनम वहीद का शेर है...मेरे वजूद को दामन से झाड़ने वाले,जो तेरी आखिरी मंजिल है वो मिट्टी हूं मैं।  

Monday, July 16, 2012

टाइगर को पता लगी मीडिया की बेबसी,लाचारी


श्रीगंगानगर-शेर वन का राजा होता है। उसके लिए कोई नोटिफिकेशन जारी नहीं होता। उसने आप को साबित किया होगा तभी वह राजा है।मीडिया ने भी पूरे देश में अपने आप को ताकतवर साबित करवाया। परंतु यहां ऐसा नजारा  देखना पड़ा जो कभी कल्पना नहीं की थी। एसपी के बुलावे पर मीडिया कर्मियों की भीड़,इतनी कि कुर्सी कम पड़ गई। एसपी ने डीजीपी के कहने पर बुलाया था पत्रकारों को। एसपी के अनुसार कुछ पत्रकार डीजीपी से मिले थे कि एसपी उनसे बात नहीं करता। पत्रकार पहुँच गए। कहने लगे .....हाय  कोतवाल फोन नहीं अटेण्ड करता....सी ओ फोन नहीं सुनता.....अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक बात नहीं करता....एसपी केवल तीन चार अखबार वालों के फोन उठाते हैं। सालों से मीडिया का अहम हिस्सा बने पत्रकारों ने एसपी के समक्ष अपनी लाचारी,बेबसी प्रकट की। या ऐसे कहें कि छोटे छोटे अधिकारियों के बारे में प्रलाप किया। संभव पत्रकार ये पढ़कर मुझसे ही खुन्नस रखने लग जाएं...क्योंकि मीडिया छोटे छोटे अधिकारियों की शिकायत करे तो यह लाचारी,बेबसी,कमजोरी ही है। सबसे भ्रष्ट तंत्र में से एक मानी जाने वाली पुलिस का कोई अधिकारी मीडिया को भाव ना दे और मीडिया बजाए उसको आइना दिखाने  के उसकी शिकायत करे...तो यह कमजोरी,लाचारी  ही है मीडिया की। वरना एक पुलिस अधिकारी की इतनी हिम्मत कि वह मीडिया से बात ना करे। एसपी को कहना पड़े। डीजीपी को बताना पड़े। डीजीपी के बाद....किसको कहेंगे। जनता तो मीडिया को कहती है और मीडिया अपने आप को कमजोर मान कर एसपी से गुहार लगाता है। जनता में मीडिया की इमेज क्या बनेगी? श्रीगंगानगर का वह  मीडिया से जिसकी चमक और धमक दिल्ली जयपुर तक जानी जाती है।  आज इतनी लाचार हो गई कि छोटे छोटे अधिकारी उसके बस में नहीं आते। मीडिया को डीजीपी की शरण में जाना पड़ता है ये कहने के लिए कि एसपी हमे बुलाता नहीं। अरे नहीं बुलाए तो नहीं बुलाए.....अपनी शक्ति दिखाओ। परंतु ये संभव नहीं। मीडिया में ही इतने विचार हैं कि क्या कहने....सबके सामने कुछ कहेंगे और अकेले में अफसर की करेंगे लल्ला लोरी। मीडिया के दूसरे साथी की करेंगे आलोचना....आलोचना भी क्या निंदा। बस,अफसर समझ जाता है कि उसे क्या रणनीति अपनानी है। तभी तो ये स्थिति आती है। जितने  मीडिया कर्मी उतनी आवाज...जब आवाज अलग अलग हो तो फिर कैसी ताकत। तभी तो एसपी ने उपदेश दिया कि खबर से अखबार तो बिक सकता है, देश नहीं बन सकता। पहले देश के नागरिक हैं उसके बाद पत्रकार और एसपी। यह सब इसलिए कि यहां कई तरह का मीडिया है। एक वो जो अखबारों के मालिक हैं। दूसरा वो जो उनमें काम करता है। फील्ड में रहता है। खबर के लिए मारा मारी करता है। तीसरा टीवी चैनल वाला मीडिया। राजा कौन है...कहना मुश्किल....एक शेर बनने की कोशिश करता है तो  दूसरा दहाड़ मारता है....दूसरा सामने आता है तो पहला टांग खींच लेता है। मीडिया तो ताकतवर है...लेकिन यह ताकत बट गई।वरना यूं एसपी के सामने थानाप्रभारी और डीजीपी के सामने एसपी की शिकायत करने की नौबत नहीं आती। बात फिर वही कि शेर जंगल का राजा होता है...वह राजा होने के लिए जानवरों का मोहताज नहीं है।मीडिया भी शेर है....किन्तु यहां उसके नाखून और दाँत निकाल कर रख दिये गए हैं। उसका इस्तेमाल वे नहीं कर पाते जो फील्ड में रहते हैं।सैफी सिरोंजी का शेर है....उम्र भर करता रहा हर शख्स पर मैं तबसरे,झांक कर अपने गिरेबाँ में कभी देखा नहीं।   

Friday, July 13, 2012

ये मुर्दों का शहर है,यहां बोलना मना है



श्रीगंगानगर-ये मुर्दों का शहर है। यहां बोलना मना है। अपने आप को जिंदा साबित करने के लिए जुबां खोलोगे तो मुर्दा बना दिये जाओगे। इसलिए जिंदा रहना है तो मुर्दों  की तरह रहो। मुर्दा रहोगे तो जिंदा रहने की हसरत पूरी होती रहेगी। वरना मुर्दों में शामिल होने में एक क्षण भी नहीं लगेगा। शहर में कोई ये कहने वाला भी नहीं होगा कि कोई जिंदा भी है। कहेगा कौन? सब के सब मुर्दे जो हैं। और मुर्दे कभी बोला नहीं करते। समझे! जिंदा हो तब भी मुर्दा रहो। क्योंकि ये मुर्दों का शहर है। यहां ज़िंदों का कोई काम नहीं। कोई नाम नहीं। इसका अपना चलन है। यहां आपको अतिरिक्त रूप से कुछ नहीं करना। आंखों को उतना ही देखने की इजाजत देना जितना जिंदा मुर्दा बने रहने की जरूरत हो। ध्यान रहे मुर्दा ना देखता है,ना सुनता है और ना ही बोलता है। मुर्दा बस केवल मुर्दा है...केवल मुर्दा। पड़ा रहता है वहां जहां उसे पटक दिया जाए। रख दिया जाए। उस पर किसी मौसम का कोई असर नहीं पड़ता। महंगाई,भ्रष्टाचार,जुल्म,अन्याय,प्रताड़ना,उपेक्षा,मजबूरी,लाचारी,बेबसी,गरीबी.....जैसी सभी लानतों,बीमारियों का इससे कोई नाता नहीं है। न तो ये उसकी सेहत पर असर डाल सकती हैं ना वह इनकी परवाह करता है। क्योंकि मुर्दों में कोई संवेदना नहीं होती। भावना नहीं होती। बे भाव के होते हैं मुर्दे। वे ना देख सकते हैं। ना बोल सकते है और ना सुन सकते हैं। जड़ होते हैं वे। बस तुम इन शहरी मुर्दों में शामिल हो जाओ। वैसे तो मुर्दों में अकड़ होती है। लेकिन इस शहर के मुर्दे नायाब हैं। इनमें अकड़ नहीं है। हो भी कहाँ से! ये बिना रीढ़ के जो हैं। बिना रीढ़ के ये सचमुच के मुर्दे हैं। बस तुम्हें ऐसा ही बन कर रहना है। ठेठ गंगानगरी मुर्दा। जिसकी जय जय कार ये करें,तुम भी करो। ये हार पहनाएं तुम ताली बजाओ। जिसको हीरो बनाए,उस पर तुम फूल चढ़ाओ। जिसके ये चरण पखारें तुम उन तलवों को चाटो......अबे चुप! मुर्दों का आत्म सम्मान,स्वाभिमान,नहीं होता। वो मुर्दा है। एक दम खालिस मुर्दा। इसलिए जो बड़े मुर्दे करते हैं तू उनको फॉलो कर। संभव है तुझे ज़िंदों को मुर्दा बनाने वाली टोली में शामिल कर लिया जाए। तेरी पहचान हो जाए खास मुर्दों से। मुर्दों में सबसे अधिक सहन शक्ति होती है। मुर्दा दुख,सुख,मान,अपमान,चोट, से ऊपर उठ चुका होता है। शहरी मुर्दों में यह अधिक होता है। इसलिए याद रखना मुर्दों में जिंदा बनने की कोशिश करके तू मुर्दों की जमात को लजाना मत। उनमें विद्रोह की भावना पैदा मत करना। किसी को बताना भी मत कि तुम जिंदा हो। मुर्दा रहोगे तो जिंदा रहोगे। इसलिए इस शहर में अपने आप को जिंदा साबित करने की जिद छोड़,चल मुर्दा हो जा। बाकी लोगों की तरह। डॉ रमेश अग्रवाल की लाइन हैं....मेरा गम बांट कर लोगों में वो करते हैं काम ऐसे,यहां रो रोके सुनते हैं वहां हंस कर उड़ाते हैं।

Tuesday, July 10, 2012

“पापा आप हमारे स्कूल मत आया करो”


श्रीगंगानगर-बात चार पांच पुरानी होगी। 1971 से 1976 तक बड़ा मंदिर स्कूल में साथ पढ़े एक साथी ने रोका। बोला,यार बड़ी समस्या है। कई आशंका मेरे मन में आई...इससे पहले कि मैं कुछ कहता दोस्त कहने लगा....मेरे बच्चे फलां स्कूल [ बहुत बड़ा अंग्रेजी माध्यम का स्कूल ] में पढ़ते हैं। मैंने कहा, ये तो अच्छी बात है।स्टेट्स सिंबल है। अरे नहीं,साथी कहने लगा, यही समस्या है...बच्चे कहते हैं कि पापा आप स्कूल मत आया करो। स्कूल में दूसरे बच्चों के सामने हमें अच्छा नहीं लगता। क्योंकि यह साथी कमीज पायजामा पहनता है। और जब पापा कमीज पायजामा पहन कर बड़े स्कूल में जाएगा तो फिर बच्चों की रेपुटेशन पर तो असर पड़ेगा ही। मेरे पास साथी की समस्या का कोई समाधान नहीं था। पता नहीं ये वर्तमान शिक्षा का नजरिया है या समाज के बदले रूप का परिदृश्य। यह भी नहीं पूछ सका कि भाई ये बच्चों की सोच के प्रति तेरी पीड़ा है या बड़े स्कूल में पढ़ाने का अफसोस।
दिल्ली से श्रीगंगानगर की बस में। दो लड़कियां,एक लड़का पीछे वाली सीटों पर थे। बात चीत से संस्कारी लगे। पढ़ाई की बात चली तो शहर के बारे में पूछा। दोनों ने कहा अबोहर जाएंगे। अबोहर प्रोपर! दोनों ने एक दूसरे से पूछा। नहीं सादुलशहर। दोनों का जवाब था। दोनों के परिवार सालों से वहीं रहते थे, लेकिन चूंकि ये दोनों बच्चे वर्षों से बाहर रह कर पढ़ाई कर रहे थे, इसलिए एक दूसरे के परिवार से अंजान था। हां इनको नोएडा,गुड़गांव,दिल्ली,जयपुर जैसे बड़े शहरों की तो जानकारी थी,लेकिन अपने उस कस्बे की नहीं जहां उनका बचपन बीता । जहां रहकर उनके परिवार ने उनको इस काबिल बनाया कि वे बड़े शहरों को जान सकें निकट से। सादुलशहर है कितना। एक कौने से कोई बोले तो दूसरे कौने पर सुनाई दे।
दो उदाहरण काफी है  वर्तमान स्थिति को रेखांकित करने के लिए। बच्चों का भविष्य तो बहुत शानदार,जानदार,दमदार हो  गया। मगर बच्चे हमारे होकर भी हमारे नहीं रहे। उनकी दुनिया दादा,नाना के परिवार से बहुत अलग हो गई। उनकी अपनी दुनिया है। उसमें खून के रिश्तों,बचपन के साथियों,निकट के रिशतेदारों के लिए समय नहीं है। ये पैसा तो गाहे बगाहे भेज सकते हैं। समय नहीं दे सकते।बुजुर्ग होते माता  पिता के पास बैठ कर उनको दिलासा देने का समय इनके पास नहीं है। वे उनके पास बैठ कर ये नहीं कह सकते...पापा-मम्मी आप चिंता मत करो मैं हूं ना...आपकी, आपके रिश्तों की चिंता करने के लिए। उनका निर्वहन करने के लिए।कचरा की लाइन हैं --पुरवाई सी तेरी चाल काली घटाएँ तेरे बाल,तू चले तो सावन बरसे तू रुके तो बिजली कड़के,दुनिया नाचे दे ताल पे ताल....।