श्रीगंगानगर- रात को
लगभग सवा नौ बजे का समय होगा। डॉक्टर के पास रोगी को लाया गया। रोगी लंबे समय से
इसी डॉक्टर से ईलाज करवा रहा था। डॉक्टर की मैडम ने दरवाजा खोलते ही कह दिया कि
डॉक्टर साहब तो घर नहीं है। रोगी की हालत गंभीर...नर्सिंग होम पहुंचे...कोई फायदा नहीं....दूसरे हॉस्पिटल
आए...नर्सिंग स्टाफ ने जांच कर डॉक्टर से बात की....डॉक्टर ने उसे दूसरे के
पास जाने की सलाह दी। नर्सिंग स्टाफ क्या करता! उसने रोगी के परिजनों को बता दिया।
गंभीर रोगी को फ़र्स्ट एड देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। वह कोई वीआईपी
थोड़े था। तीसरे डॉक्टर के पहुंचे। वह भी
नहीं....आखिर किसी को फोन करके एक नर्सिंग होम संचालक से आग्रह किया गया। उसने बहुत बड़ा अहसान करते हुए ईलाज
शुरू किया। किसी डॉक्टर को इस बात का अंदाजा कि इस पूरी प्रक्रिया में रोगी के
परिजनों के दिलों पर क्या बीती होगी? जीवन-मौत तो ईश्वर के हाथ है लेकिन डॉक्टर कुछ प्रयास तो करे। किसी ने
कहा हमारे यहां ये सुविधा नहीं। किसी ने बोल दिया डॉक्टर नहीं। आदमी मरे तो मरे
डॉक्टर का क्या जाता है! रात को किसी आम आदमी के लिए ना तो डॉक्टर आएगा। ना मरते
हुए इंसान को कोई फर्स्ट एड देने की कोशिश होगी। क्योंकि साधारण परिवार
के किसी व्यक्ति को रात को गंभीर बीमार होने का हक है ही नहीं। किसने दिया उसे यह हक ? नहीं होना चाहिए
उसे बीमार। वह ऐसी क्या चीज है जो वह रात को बीमार हो, वह भी गंभीर। उसे शर्म आनी चाहिए। इस नगर में रात को बीमारी
की बजाए उसे शर्म से डूब मरना चाहिए। वह क्या समझता कि उसकी बीमारी से किसी डॉक्टर
का दिल पसीजेगा! कोई उसके परिजनों के दर्द को समझेगा! नर्सिंग होम के दरवाजे उसके ईलाज के लिए खोल दिये जाएंगे! रात को कोई क्यूँ करे
उसका ईलाज । उसकी अहमियत ही क्या है इस क्षेत्र में। उसको जीने का हक ही किसने
दिया....बीमार हो जाए रात को और मर जाए ईलाज के अभाव में। हमें क्या? हम तो नहीं करेंगे ईलाज। ईलाज! अरे! हम तो
फ़र्स्ट एड भी नहीं देंगे। कौनसी इंसानियत?..दया...फर्ज.... । अजी छोड़ो जी, ये सब किताबी बातें हैं। हम केवल वही किताब पढ़ते हैं जिसकी जेब में दाम
हो....खूब नाम हो....प्रतिष्ठित व्यक्ति हो.....बड़ा अफसर हो.... । आम
आदमी....उस पर रात को गंभीर बीमार....उसको कहा किसने था रात को बीमार होने के लिए। रात
को कोई नर्सिंग होम का डॉक्टर “रिस्क” नहीं लेता। कुछ हो गया तो तोड़ फोड़ का अंदेशा।
बस यही एक तर्क है डॉक्टर के पास। सही भी है ये बात, किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं कि हर मरीज के परिजन
हाथों में पत्थर लिए नर्सिंग हॉस्पिटल आते हैं ईलाज करवाने। अफसोस तो ये कि इनसे
पूछने की हिम्मत कौन करे? अभी ये
हाल है।उसके बाद तो पता नहीं क्या होगा। जो भी हो किन्तु आम आदमी रात को गंभीर
बीमार ना हो। उसे रात को बीमार होने का हक ही नहीं है। एक शायर ने कहा है....पस्त हौसले वाले तेरा
साथ क्या देंगे,ज़िंदगी इधर आ तुझ
को हम गुजारेंगे।
Sunday, October 28, 2012
Wednesday, October 24, 2012
सरकार से तो बिना शर्त प्यार करना पड़ता है
श्रीगंगानगर-सरकारी
मेडिकल कॉलेज मिलेगा लेकिन सड़क पर नहीं मेज पर। धमकी से नहीं आग्रह से। मुख्यमंत्री सहित सभी जनप्रतिनिधियों
से दूर रहकर नहीं उनसे मिल कर। उनको आँख दिखाकर नहीं आँख से आँख मिलाकर। किसी व्यक्ति विशेष या किसी संगठन की अपनी शर्तों पर नहीं,सरकारी नियम,कानून,कायदों के हिसाब से।किसी से कुछ
लेने के कायदे होते हैं चाहे वह हमारा हक ही क्यों न हो। हक तो बाप का संतान पर और
संतान का माँ-बाप पर भी होता है। पति-पत्नी का एक दूसरे पर जो हक होता है उससे
अधिक तो कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। इन रिश्तों में भी लेने-देने की मर्यादा है। दान
देने की मर्यादा से तो शास्त्र भरे पड़ें हैं। दान तो ऐसे दिया जाए कि दूसरे हाथ को
भी पता ना लगे....यह सतयुग की बात थी। अब दूसरा जमाना है...एक रुपया भी दो तो बजा
के। सरकार लेने को तैयार भी है। वैसे ये जरूरी नहीं कि सरकार से मेडिकल कॉलेज
मांगने के लिए उसे सौ,दौ सौ,पांच सौ करोड़ रुपए का चैक दिखाना जरूरी है। खाली हाथ जनता भी सरकार से यह
सब मांग सकती है। परंतु सरकार सरकार है। जनता के सामने झुक भी सकती है और किसी को
झुकाने पर आए तो उसे दोहरा कर देती है। सरकार को कोई डराना चाहे तो गड़बड़ हो जाती है। सरकार कुछ देर डरने का नाटक
तो कर सकती है लेकिन असल में वह डरती
नहीं। ना तो किसी दानवीर से और ना बड़े से बड़े उद्योगपति अथवा बाबा से। सरकार किसी
उद्योगपति से डरती तो टाटा को अपना कारख़ाना बंगाल से गुजरात में ना शिफ्ट करना
पड़ता। कोई सरकार किसी बाबा से कांपती तो रामदेव पता नहीं क्या से क्या हो जाते। सरकार ने पहले तो बाबा से मिलने कई मंत्री भेजे फिर उसी सरकार
ने उसे महिलाओं के कपड़े पहन कर भागने के लिए मजबूर किया। दानवीर तो ना जाने कितने हैं जो
दशकों से दिये जा रहे हैं।सरकार ना तो उनसे डरती
है ना वे डराने की कोशिश करते हैं। दोनों एक दूसरे का यथा योग्य मान सम्मान करते
हैं। सरकार होती ही ऐसी है। एक
पल कुछ दूसरे ही पल और कुछ। सरकार कहीं भी चाहे किसी की
भी हो वह किसी से नहीं डरती। हां
अगर आपके पास उसे लूटने का गट्स है तो उसे लूट लो चाहे जितना।वह तैयार रहती है लुट
जाने को। ये गट्स नहीं तो फिर उससे लेने की कोई तरकीब हो आपके पास। कोई दिक्कत
नहीं। मिल जाएगा जो चाहोगे। परंतु बात फिर वही....यह सब होगा एक प्रक्रिया
के तहत। सरकार के कायदे कानून से ना कि मेरे,उसके,इसके
कहने या शर्त पर। सरकार के साथ बीमारी ये कि वह शर्तों के साथ प्यार नहीं
करती। बस,बिना शर्त प्यार
करो.....उसके बाद उसके पास जो है वह हमारा। यहां उलटा होता है।
Thursday, October 11, 2012
कॉलेज के लिए बी डी अग्रवाल ने दिया सौ करोड़ रुपए का चैक
श्रीगंगानगर-विकास डब्ल्यू एसपी लिमिटेड के
सीएमडी बी डी अग्रवाल ने सरकारी क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज के निर्माण के लिए सौ करोड़ रुपए का चैक सरकारी
मेडिकल कॉलेज बनाओ संघर्ष समिति को दिया है।
श्री अग्रवाल इसके लिए समिति के बुलावे पर पंचायती
धर्मशाला पहुंचे। जहां समिति के पदाधिकारी मौजूद थे। अपने संक्षिप्त सम्बोधन में बी डी अग्रवाल ने कहा कि वे आंदोलन के
बारे में कुछ नहीं कहेंगे लेकिन सरकारी
मेडिकल कॉलेज के लिए सौ करोड़ रुपए का चैक लेकर आया हूँ। उन्होने कहा कि अगर इसकी स्वीकृति मिलती है तो वे
बहुत जल्दी ही ऐसे मेडिकल कॉलेज का निर्माण
करवाएंगे कि आस पास कोई नहीं होगा। उन्होने कहा
कि वे केवल फाइनेंस का काम करेंगे। हमारी इच्छा है कि कॉलेज सरकारी बने। श्री अग्रवाल ने कहा कि अगर वे चाहते तो प्राइवेट मेडिकल
कॉलेज बना सकते थे...लेकिन दुकान खोलने की कोई
मंशा नहीं। श्री अग्रवाल ने हरियाणा
में उनके
परिवार द्वारा किए गए इसी प्रकार के जन हित के कार्यों के बारे में बताया। वे बोले कि हमारा मकसद सरकारी स्तर पर अधिक से अधिक सुविधा उपलब्ध करवाना है। श्री अग्रवाल ने बताया कि यूनिसेफ के
माध्यम से बच्चों की बीमारी के इलाज के
विशेषज्ञ का प्रबंध किया जाएगा। ये सब कुछ प्राइवेट में नहीं हो सकता। उन्होने बताया कि ये सौ करोड़ रुपए का चैक
राजकीय चिकित्सालय के नाम से है। उन्होने
कहा कि यह समझ नहीं आ रहा कि सरकारी
मेडिकल कॉलेज
क्यों नहीं स्वीकृत हो रहा। जबकि हम सभी प्रकर
के संसाधन देने को तैयार हैं। उन्होने कहा कि
बढ़िया मेडिकल कॉलेज बना कर देंगे। सामग्री हम लगाएंगे। मल्टी
स्टोरी कॉलेज होगा। जो दुनिया देखेगी। उन्होने घोषणा की कि अगर
सौ करोड़ से
अधिक खर्च आया तो वह भी हम देंगे। उनके द्वारा दिया गया चैक एक्सिस बैंक का है। उन्होने बजरंग दास अग्रवाल
के खाते से यह चैक दिया है। इस मौके पर
महेश पेड़ीवाल,नरेश शर्मा,रतन लाल गणेशगढ़िया,सोनू नागपाल,गुरबलपाल सिंह, गिरधारी लाल गुप्ता,नर्ष अग्रवाल मुन्ना आदि
व्यक्ति मौजूद थे।
Thursday, October 4, 2012
कपड़ों और सूरत से नहीं होती इंसान की पहचान
श्रीगंगानगर-एक
परिचित विप्रवर को घर छोड़ गया। विप्रवर भी
क्या! आज के सुदामा से कुछ बीस लगे। बुजुर्ग पतले दुबले । दांत थे भी और नहीं भी।
हल्की सफ़ेद दाड़ी। बाल बिखरे हुए। कलाई पर घड़ी। जिसका फीता इससे पहले पता नहीं कब
बदला होगा। उसका वास्तविक रंग फीका पड़ बे रंग का हो चुका था। धागे निकले हुए
थे। कमीज-धोती थी तो साफ लेकिन झीनी ।गज़ब
की फुर्ती। आते ही नंगे पैर बाथरूम में
गए। वापिस आए, हाथ पैर धोए। आसन बिछा था बैठ गए। मन में भाव उमड़े
कि ये किस पंडित को छोड़ गए वो.....। इससे पहले कि सोच आगे बढ़ती...विप्रवर
ने अपने अनुभव से मेरे चेहरे और मन के भाव पढ़ लिए। विप्रवर बोले,रिटायर्ड टीचर हूँ। 1960-61 में लगा था नौकरी। मन के भाव,विचार सब बदल गए साथ में चेहरे का रंग भी । वे बताने लगे...1300 रुपए पेंशन मिलती है।क्योंकि हमारे जमाने में तनख़ाह
कम ही हुआ करती थी। जिस चेहरे पर कुछ देर
पहले दीन-हीन जान तरस आ रहा था उसके प्रति अब श्रद्धा हो गई। उनकी बातों में रस
आने लगा। भोजन करते हुए वे बोले,हिन्दी और गणित पढ़ाया करता
था। अब तो गणित बहुत मुश्किल हो गया। बच्चों को ना तो हिन्दी की ग्रामर आती है ना
अंग्रेजी की। इसी वजह से उनके नंबर कम आते हैं। भोजन की तारीफ के साथ उनके अनुभव
का ज्ञान भी मिल रहा था। वे बताने लगे, सिरसा के एक सेठ की
सिफ़ारिश पर श्रीकरनपुर गया नौकरी लेने। तहसीलदार पटवारी लगाना चाहता था। लेकिन
मेरी इच्छा मास्टर लगने की थी। तहसीलदार ने बहुत कहा,पर मैं
मास्टर ही लगा। कुछ समय पहले जो दीन हीन लग रहा था वह ज्ञान और अनुभव से घनवान
था।अपने अंदर आशीर्वादों का भंडार लिए हुए था वह बुजुर्ग विप्रवर। यह सब लिखने का
अर्थ केवल उस विप्रवर की तारीफ करना नहीं है। बल्कि इस बात का जिक्र करना है कि
इंसान की सूरत,कपड़े और उसके साधन देख कर ही समाज उसके बारे में अपनी राय कायम कर लेता
है। जैसा पहनावा और सूरत वैसी ही उसको तवज्जो मिलती है। यह कोई आज नहीं हो रहा।
सदियों से ऐसा ही है। हर युग में इन्सानों ने सूरत, कपड़ों और
धन को केंद्र में रख दूसरे इंसान को महत्व दिया। इंसान की सूरत कैसी भी हो, कपड़े चाहे जैसे हों, धन है या नहीं लेकिन उसने अपनी
मधुर वाणी, अपने ज्ञान और अनुभव से,
अपनी बड़ी सोच से, किसी के व्यक्तित्व को पहचाने के इस माप
दंड को हर बार गलत भी साबित किया। जैसे आज इस विप्रवर ने किया। जाते हुए पंडित जी
ने संस्कृत में एक श्लोक बोला...जिसका अर्थ था कि पद और पैसा तो ठीक है किन्तु हर बार फलित तो भाग्य ही होता है। ये
कह वे अपनी साइकिल पर सवार हो चले गए। ये संकेत उन्होने अपने लिए दिया या हमारे लिए
वही जानें। शायर मजबूर कहते हैं...दिल है पत्थर,दिल है मोम
भी मजबूर,दिल पर हर चोट के निशां होते हैं।
Tuesday, October 2, 2012
मेहमान हैं टेम्प्रेरी कलेक्टर के रूप में
श्रीगंगानगर-जब
शब्दों का महत्व ही ना रहे तब खामोशी ठीक है और जब शब्दों की जरूरत ही ना हो समझने
समझाने में तब होता है मौन। खामोशी!मतलब
कुछ भी कहो,सुनो,लिखो किसी पर कोई असर नहीं होने वाला। मौन!
अर्थात जब सब बिना बोले,कहे,लिखे ही एक दूसरे की बात समझ जाएं।
श्रीगंगानगर के संदर्भ में दोनों स्थिति
थोड़ी थोड़ी है। शब्दों का महत्व भी है और इनकी जरूरत नहीं भी। इसलिए कुछ लिखा जाएगा
और कुछ बिना लिखे समझना होगा। यही ठीक रहेगा। मेहमान के सामने। मेहमान! अपने नए
जिला कलेक्टर श्री राम चोरडिया। टेम्प्रेरी कलेक्टर। मेहमान कलेक्टर। कुछ माह बाद
रिटायर हो जाएंगे। जो मेहमान है उसके सामने परिवार वाले कुछ बोलते हैं और कुछ
इशारों में एक दूसरे को समझाते हैं। क्योंकि मेहमान को घर की समस्या बताई नहीं जाती।
सभी बातें उनके सामने
कहना संस्कार नहीं है न हमारे। अब उनको ये कैसे कह
दें कि हमारा सीवरेज अभी तक नहीं बना। चार साल से लगे हैं नेता और प्रशासन। कान पक गए सुनते
सुनते। ओवरब्रिज का क्या होगा! मिनी
सचिवालय का भी प्रस्ताव है...ऐसे कितने ही मुद्दे हैं। किन्तु मेहमान
को ये सब कैसे बताएं। अच्छा नहीं होता ना मेहमान को घर की समस्या बताना। आपसी
विवाद को दर्शाना । हमें तो मेहमान
की तो आवभगत करनी है। “अतिथि
देवो भव:।“ बस नो दस महीने अब
हमारा यही काम है कि अपने काम भूलकर मेहमान कलेक्टर की सेवा करें। हमारा फर्ज है
ये ,मेहमान कलेक्टर पर कोई अहसान
नहीं। मेहमान लंबे समय तक रुके तब भी उससे ये
उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह कोई बड़ी सहायता करेगा हमारी....हां आते जाते कोई सब्जी
ले आया या बच्चे को उसकी जरूरत की चीज दिला लाया तो अलग बात है। इससे अधिक उम्मीद करेंगे तो रंज और अफसोस का कारण होगा। मेहमान
भी कैसे कलेक्टर जैसे। अब मेहमान तो टेम्प्रेरी ही होते है। वैसे सरकार ने टेम्प्रेरी कलेक्टर लगा दिया। ना भी लगाती तो क्या तो यहां के लीडर कर लेते और क्या
विपक्ष। अब ये कलेक्टर कुछ महीने शहर को समझने में लगाएंगे। जब तक समझेंगे तब
विदाई की वेला निकट आ जाएगी। विदाई समारोह होंगे। उपहार दिये जाएंगे। कार्य की तारीफ होगी। व्यक्तित्व की सराहना की जाएगी। बस
उसके बाद चुनाव आ ही जाएंगे। वैसे भी जब प्रस्थान का समय
हो तो इंसान ‘राम-राम” करके समय पास करता है। जो मिल जाए वही अपना।
श्रीराम चोरडिया को तो कलेक्टर का पद तो मिल ही गया।
और जो कुछ मेहमान के रूप में उनको मिलेगा वह अलग से होगा। कलेक्टर के रूप
में उनकी पहली और अंतिम पोस्टिंग शायद यही होगी। इस शहर का क्या होगा? जो अब तक होता आया है वही होगा।
अफसरशाही का राज है “शासन” पर
श्रीगंगानगर-जो सरक
सरक के काम करे वह सरकार। जैसे राजस्थान सरकार। जिसे शायद मुख्यमंत्री अशोक
गहलोत की टीम नहीं बल्कि अफसरों का एक दल चला रहा है। एक तबादला। फिर उसका तबादला।
तबादले पर तबादला। जो करना है एक बार कर दो। ये क्या थोड़ी देर पहले कुछ,कुछ पल बाद कुछ और। आईएएस की सूची आई। रवि जैन
को कलेक्टर लगाया। कितने ही व्यक्तियों ने गिफ्ट तैयार की। समाज के नाम पर मिलेंगे। गिफ्ट देंगे। रिश्ते बनाएंगे। अब ये गिफ्ट किसी और के
काम आएगी। कितने आरएस बदले। श्रीगंगानगर में नगर विकास का सचिव लगाना है ये “भूल” गए। एक डीएसओ था, जैसा भी था था तो
सही। उसको हटा दिया। वैसे बूआ जाऊँ जाऊँ कर रही थी...फूफा लेने आ गया। तीन सीओ हटाए एक लगाया। डीजीपी हरीश मीणा की
मेहरबानी से अशोक मीणा पोने दो साल निकाल गए। तब से लाइन में लगे राजेन्द्र
ढिढारिया को अब मौका मिला श्रीगंगानगर सीओ लगने का।अब एससी/एसटी प्रकोष्ठ और ग्रामीण सीओ के लिए सरकार या तो किसी डिजायर का
इंतजार कर रही है या फिर इन पदों के लायक उनके पास कोई अफसर नहीं।वरना लिस्ट में
सौ नाम हों वहां दो और बढ़ जाएं तो कौनसा
कंप्यूटर लिस्ट निकालने से मना कर देता है।
कंप्यूटर मना नहीं करता.....बड़े अफसर की पूछ कम हो जाती है। सभी कुर्सी एक साथ भर गई
तो विधायक इनकी लल्ला लोरी कैसे करेंगे। अब जब आप तबादले कर ही रहो हो तो
कोई सीट खाली क्यों रखते हो। लगे हाथ सभी काम क्यों नहीं निपटाते। आगे दौड़। पीछे
छोड़। यही नीति “सरकार” की शह पर अफसरों
ने बना रखी है। और नहीं तो क्या!
अब जो खाली सीट हैं उनको भरना तो पड़ेगा ही। जैसे भी अफसर हैं उनसे। जो खाली रह गई सीट उसके लिए फिर लिस्ट निकालनी पड़ेगी। फिर वही प्रक्रिया...वही मगज़मारी..... ।
श्रीगंगानगर में तो खैर कोई फर्क नहीं पड़ता कोई अफसर है या नहीं। किन्तु सरकार की
प्रतिष्ठा पर तो असर पड़ता ही है। ये क्या सरकार हुई जो हर लिस्ट में कोई ना कोई
घर खाली छोड़ देती है। उसको भूल जाती है। कई महीने तक याद ही नहीं करती कि कौनसी
कुर्सी खाली रह गई। इसका चार्ज उसको....उसका चार्ज किसी को। एक कुर्सी का काम ठीक से हो
नहीं पाता कि दूसरे में और उलझा दिया। अब अधिकारी उसमें अधिक रुचि लेता है जिसमें
माल के साथ प्रचार मिले। लोगों को मालूम हो कि हां इस नाम का भी कोई अधिकारी है।
सरकार बेचारी क्या करे....वह तो खुद अफसरों के भरोसे है। अफसरशाही पर सरकार का शासन नहीं अफसर
सरकार पर शासन कर रहे हैं।
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