Friday, November 30, 2012

बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो......


श्रीगंगानगर-माँ कहा करती थी, बैठना भाइयों का चाहे बैर क्यूँ ना हो,छाया पेड़ की चाहे कैर क्यूँ ना हो। कौन जाने माँ का यह अपना अनुभव था या उन्होने अपने किसी बुजुर्ग से यह बात सुनी थी। जब यह बात बनी तब कई कई भाई हुआ करते थे।उनमें खूब बनती भी होगी। इतनी गहरी बात कोई यूं ही तो नहीं बनती। तब  किस को पता था कि  कभी ऐसा वक्त भी आएगा जब भाइयों का साथ बैठना तो क्या उनमें आपसी संवाद भी नहीं रहेगा। उससे भी आगे, ऐसा समय भी देखना पड़ेगा जब इस गहरी,सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण बात पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। क्योंकि भाई हुआ ही नहीं करेगा। एक लड़का एक लड़की,बस। तो! बात बहुत पुरानी है। तस्वीर काफी बदल चुकी है। इस बदलाव की स्पीड भी काफी है। रिश्तों की  गरिमा खंड खंड हो रही है। रिश्तों में स्नेह का रस कम होता दिखता है। मर्यादा तो रिश्तों में अब रही ही कहां है। खून के रिश्ते पानी पानी होने लगे हैं। अपवाद की बात ना करें तो यह किसी एक की नहीं घर घर की कहानी है। कहीं थोड़ा कम कहीं अधिक। व्यक्तिवादी सोच ने दिलो दिमाग पर इस कदर कब्जा जमा लिया कि किसी को अपने अलावा कुछ दिखता ही नहीं। रिश्तों में टंटे उस समय भी होते होंगे जब उक्त बात बनी। परंतु तब उन टंटों को सुलझाने  के लिए रिश्तेदारी में  रिश्तों की गरमाहट को जानने और महसूस करने वाले व्यक्ति होते थे। जिनकी परिवारों में मान्यता थी। उनकी बात को मोड़ना मुश्किल होता था। व्यक्ति तो अब भी  हैं। परंतु वे टंटे मिटाने की बजाए बढ़ा और देते हैं।  एक दूसरे के सामने एक की दो कर। रिश्तों में ऐसी दरार करेंगे की दीवार बन जाती है दोनों के बीच। किसी को दीवार के उस पार क्या हो रहा है ना दिखाई देता है ना सुनाई। फिर कोई किसी अपने को मनाने की पहल भी क्यों करने लगा! उसके बिना क्या काम नहीं चलता। इस प्रकार के बोल सभी प्रकार की संभावनाओं पर विराम और लगा देते हैं। सुना करते थे कि खुशी-गमी में रूठे हुए परिजन मानते और मनाए जाते हैं। पहले खुशी के मौके पर आने वाले रिश्तेदार सबसे पहले यही काम करते थे। अब तो किसी कौने में खड़े हो कर बात तो बना लेंगे लेकिन बिखरे घर को एक करने की कोशिश नहीं करेंगे। इसकी वजह रिश्तों में आया खोखलापन भी है। समाज में किसी का किसी के बिना काम नहीं चलता। सबका साथ जरूरी है। किसी की कहीं जरूरत है किसी और की किसी दूसरी जगह। कोई ये साबित करना चाहे कि उसका तो काम अकेले ही चल जाएगा तो कोई क्या करे? काम चल भी जाता है लेकिन मजा नहीं आता। मन में टीस  रहती है। अंदर से मन उदास होता है। ऊपर बनावटी हंसी। क्योंकि सब जानते हैं कि मजा तो सब के साथ ही आता है।

Monday, November 26, 2012

सबसे पहले हम की हौड़ से हुई सबको टेंशन


श्रीगंगानगर- आगे निकलने हौड़ और सबसे पहले हम के चक्कर में मीडिया कई बार ऐसे खबर प्रसारित कर देता है जिससे हजारों हजार लोगों को टेंशन हो जाती है। ऐसा करने वाले ये नहीं सोचते कि उनकी बात  कहां तक जाकर असर करती है। वे इस बात को भी भूल जाते हैं कि खबर पिटे तो पिटे लेकिन जो भी प्रसारित,प्रकाशित किया जाए उस पर कोई संदेह ना करे। उन्हे इस बात का भी ध्यान नहीं रहता कि अधूरी जानकारी देने से तो बेहतर है कि कुछ ना दिया जाए। परंतु मीडिया में ऐसे व्यक्तियों की कोई कमी नहीं है जिनको इन बातों से कोई मतलब नहीं। वे समाज,सामाजिकता,दायित्व सबको को अपनी पत्रकारिता के बाद समझते हैं। उन्हे इस बात से कोई लेना देना नहीं कि जो जितना अधिक प्रभावशाली होता है उसकी ज़िम्मेदारी भी उतनी ही अधिक होती है। लेकिन हम क्यों हमारे कर्तव्यों की बात करें। हम तो हमारे अभिव्यक्ति के अधिकारों को ही देखते,सुनते और मानते हैं। इसी की वजह से गत दिवस  श्रीगंगानगर के लोग कई घंटे तक हैरान परेशान और चिंतित रहे। इसकी वजह थी एक न्यूज चैनल द्वारा जल्दबाज़ी में दी गई गलत जानकारी। चैनल ने पट्टी में सरदारशहर के पास बस-ट्रक की टक्कर में सभी मृतकों को श्रीगंगानगर का बता दिया। बस,किसी नगर को परेशान करने के लिए इतना तो काफी था। जिस नगर को  एक साथ 14 व्यक्तियों के दुर्घटना में मरने की जानकारी मिली हो तो वहां के लोगों की मनोदशा का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल नहीं है। यहां के निवासियों ने या जिस किसी शहर में गंगानगर से संबंध रखने वाले किसी  व्यक्ति ने जैसे ही चैनल की खबर देखी /पढ़ी उसने तुरंत दूसरों को फोन कर घटना की जानकारी दी। नेपाल तक के व्यक्ति ने श्रीगंगानगर फोन करके अपने परिजनों से घटना के बारे में पूछा। लोग सुबह का जरूरी काम काज छोड़ कर यह पता करने लग गए कि मरने वाले कौन कौन और किस मोहल्ले के थे। कुछ ही देर में यह खबर पूरे शहर में हो गई। हर कोई खबर से चिंतित। लेकिन ऐसा कोई जरिया नहीं जिससे ये मालूम हो सके कि मरने वाले कौन थे। मीडिया से जुड़े व्यक्तियों को धीरे धीरे घटना की जानकारी मिली तो पता लगा कि सभी मृतक श्रीगंगानगर के नहीं थे। तब कुछ तसल्ली हुई। ऐसा नहीं कि उनको घटना का दुख नहीं था,था लेकिन उतना जितना किसी दूसरे शहर में हुई घटना से होता है। जिसका जिस किसी  व्यक्ति,स्थान से जितना संबंध होता है मन के भाव भी उसी के अनुरूप खुशी,शोक,दुख,सुख,पीड़ा,आनंद महसूस करते हैं। बस,यही हुआ था उस दिन श्रीगंगानगर वालों के साथ।

Thursday, November 22, 2012

अब बदल चुकी है रिश्तों की परिभाषा........


श्रीगंगानगर-रिश्ते!...अब तो रिश्ते आर्थिक,सामाजिक हैसियत और राजनीतिक,प्रशासनिक अप्रोच देख कर बनाए जाते हैं। उससे भी राम रमी मजबूरी होती है जिसका दबदबा हो....अगर ये क्वालिटी आप में नहीं है तो आप  अपने घर में खुश रहो....आपका परिचय देना भी मेरे लिए मुश्किल है। समझ गए ना... किसी प्रकार का वहम किसी से रिश्तेदारी या मित्रता का मत रखना। बेकार में मन दुखी होगा। रिश्तों की गिरती गरिमा पर अफसोस करोगे। किन्तु हासिल कुछ भी नहीं होना। माहौल ही ऐसा है। कोई इसमें बुरा माने तो माने। जैसे ही किसी को पता लगा कि आप सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक,प्रशासनिक....आदि में बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति होने वाले हैं या हैं।शासन-प्रशासन में आपका दखल है। आपको  देखा और पहचाना जाता है। आपकी बात सुनी जाती है। समझो, आप अपने रिश्तेदारों,मित्र मंडली और उनके आगे के रिश्तेदारों और मित्रमंडली के लिए बहुत अधिक खास बन गए। इसके लिए किसी को कुछ कहने,बताने की जरूरत नहीं। आपका लगातार बजने वाला फोन ये आपको समझा देगा। मिलने के लिए आने वाले व्यक्ति और आपको बुलाने की चाह भी संकेत करेगी कि आप अब पहले जैसे नहीं रहे। आपके बारे में दूसरों को इस रूप में बताया जाएगा....अरे वो! वो तो अपने एकदम निकट हैं।कोई काम हो तो बताना,अपने करवा लेंगे.... । कोशिश होगी कि उसे आपके साथ सब लोग देख लें। दूर से दूर का रिश्तेदार आपको अपना निकट का रिश्तेदार बताएगा। कई पीढ़ी दूर कोई व्यक्ति आपको अपने परिवार का कह कर मान बटोरने की कोशिश करेगा। जो सालों से ना मिले होंगे वे आपके बचपन के मित्र बन जाएंगे। मतलब ये कि आप पर वे अपना अपनत्व लुटायेंगे जो कभी आपके निकट नहीं रहे। वे आप पर हक जताएंगे जिन्होने कभी आपको कोई हक नहीं दिया। वे आपके सबसे निकट होने के प्रूफ पेश करेंगे जो किसी प्रकार की दुख की घड़ी में आपका हाल तक जानने नहीं आए। ये कब तक होगा?जब तक आप वर्तमान स्थिति में हैं। जैसे ही समय बदला। धीरे धीरे सब के सब एक एक करके मंच से गायब होने लगेंगे। उनका अपनत्व किसी और पर निछावर होने लगता है। वे जो कल आपके थे आज किसी और के हो चुके होंगे। इस भौतिक युग की यही परंपरा है। इसलिए टेंशन नहीं। सभी के साथ ऐसा होता है। यह है आज के रिश्तों की नई परिभाषा। यह लिखी है बदलते सामाजिक परिवेश ने। बदली हुई सोच ने। जब रिश्ते बदलते हैं तो शब्द भी बदल जाते हैं सम्बोधन के।



Tuesday, November 13, 2012

हर अंधेरा गुम हो जाए दीपो की रोशनी में


श्रीगंगानगर-पांच दिन का निराला,अलबेला महापर्व दिवाली। एक ऐसा त्यौहार जिसके समकक्ष कोई और हो ही नहीं सकता। यूं तो हर त्यौहार की अपनी कथा  है। उसका धार्मिक,सामाजिक महत्व है। लेकिन दिवाली की बात ही अलग है। धरती का जर्रा जर्रा इसके उत्साह से सराबोर हो जाता है। राज हो या रंक सभी के दिलों में यह उमंग भर देता है। उत्साह का संचार करता है। बच्चे से लेकर बड़े तक के पैरों में जैसे घुंघरू बांध देती है प्रकृति। कई दिन पहले साफ सफाई। थोड़ी बहुत ख़रीदारी। जिसके पास दस रुपए वह दस रुपए खर्च करेगा । जिसके पास करोड़ों वह करोड़ों खर्च करता है। हर परिवार,इंसान दिवाली पर खर्च करता है अपनी जेब के हिसाब से। घर घर में पता ही नहीं कितने जाने अंजाने ऐसे काम,ख़रीदारी होती है जिसको दिवाली पर करेंगे और फिर किया जाता है। पांचों दिन का अलग धार्मिक,पौराणिक महत्व साथ में प्रकृति के स्वरूप को बनाए रखने का काम भी। दिवाली पर जो उत्साह,उमंग,खुशी का संचार हर दिल में हुआ है। वह हर पल हर क्षण आपके अंदर बना रहें। जीवन की हर खुशी,हर आनंद हर दिन आपके घर दिवाली बन के आती रहे। आपकी लाइफ का हर क्षण एक त्यौहार हो। गणपति देव आपकी हर विध्न,बाधा को हर ले। लक्ष्मी माँ की अपार  कृपा आप पर,आपके परिवार पर,आपके शुभचिंतकों और सगे संबंधियों पर हमेशा बनी रहे। किसी भी प्रकार के अभाव का भाव कभी किसी चेहरे पर महसूस ना हो। अंधेरा किसी भी प्रकार का हो वह दिवाली के दीपों की रोशनी में गुम हो जाए। हर इंसान के अंदर इतने दीप रोशन हों कि उसे कभी किसी अंधेरे का सामना ना करना पड़े। थोड़े में अधिक बरकत हो। घर से लेकर समाज में सभी के बीच आपसी भाईचारा हो। सबसे बढ़कर एक दूसरे के प्रति प्रेम की भावना हो। क्षेत्र में शांति और सौहार्द का वातावरण हो। क्योंकि शांति के अभाव में तो सब कुछ बेकार है। क्षेत्र का विकास हो। किसी को किसी प्रकार का अभाव ना रहे। पेट में रोटी हो। तन पर लंगोटी हो और रहने के लिए कोठी हो चाहे छोटी हो। रोटी,कपड़ा और मकान से कोई महरूम ना रहे। जैसी जिसकी जरूरत हो वह पूरी हो। बच्चों में संस्कार हों। बुजुर्गों का आदर मान हो।  उनके अनुभव का सम्मान हो। सभी की सभी बढ़िया कामना पूरी हो। किसी से किसी की दुश्मनी न हो। लेकिन यह सब केवल हमारे लिख देने और आपके पढ़ देने मात्र से नहीं होगा। इसके लिए प्रयास प्रयास करने पड़ते हैं। कर्म प्रधान है सब कुछ। वो तो करना ही पड़ेगा। दीपक में तेल डाल दिया। बाती लगा दी। वह अपने आप नहीं जलता। उसको जलाना  पड़ता है। ऐसी ही ये जीवन है। इसको चलाना है।कहते भी हैं कि जीवन चलने का नाम। बस, जिस तरफ चल रहें हैं वह दिशा सही हो तभी सभी की दशा शानदार,जानदार और दमदार होगी। दीपक अंधेरे में जले तभी उजियारा होगा। यही जीवन है। कदम सही दिशा में बढ़े तभी काम। वरना तो समय और मेहनत दोनों बेकार। यही करना है। दीपक बन कर जलना बहुत मुश्किल है। आज के दिन यही दुआ है कि अगर किसी के जीवन में थोड़ा सा भी अंधेरा किसी कोने में है तो वहाँ प्रकाश पहुंचे। अंधेरा समाप्त हो। उजियारा हो सब के दिलों में। सब के घरों में। याद रहे, अंधेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। अंधेरा तभी है जब रोशनी ना हो। जैसे ही दीपक जलता है अंधेरा समाप्त। इसलिए रोशन करना है सब कुछ। आज ही नहीं...हर क्षण। सभी को दिवाली की मंगलकामना।

Saturday, November 10, 2012

वर्तमान ने बच्चों से छीन लिया उनका बचपन

  1. श्रीगंगानगर-क्विज का सेमीफाइनल। दो बच्चों की इंटेलिजेंट टीम। आत्म विश्वास से भरपूर। बढ़िया अंकों से फाइनल में पहुंची। दूसरे  सेमीफाइनल से टीम उनसे भी अधिक अंक लेकर फाइनल में आई। फाइनल दिलचस्प होने की उम्मीद। परंतु पहले वाली टीम का एक बच्चा डिप्रेशन में आ गया। सिर दर्द,चक्कर। परिणाम जो मुक़ाबला दिलचस्प होना था वह एक तरफा रहा। ये क्या है? अभी से ये हाल! छोटे से कंपीटीशन में इतना अवसाद। हार से इतना डर,घबराहट। जीत हार किसी प्रतियोगिता का ही नहीं इस जीवन का भी प्रमुख हिस्सा है। जिंदगी के किसी मोड़  पर जीत और किसी राह पर हार। ये घटना कोई मामूली नहीं। ऐसा लगता है जैसे वर्तमान में बच्चों से उनका बचपन छीन लिया गया हो। ये सब खुद माता-पिता सबसे अधिक करते हैं। उसके बाद थोड़ा बहुत योगदान स्कूल वालों का भी है। पैरेंट्स भी बेचारे क्या करें! माहौल ही ऐसा है। इसके लिए चाहे अपने ही मासूम बच्चों की शिकायत स्कूल में क्यों ना करनी पड़े, हाय! ये शरारती बहुत है। कहना नहीं मानता।घर में दिमाग बहुत खाता है।हद हो गई! बच्चा शरारत तो करेगा ही। उसे नई से नई जानकारी भी चाहिए। हर किसी के बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा उसकी बाल सुलभ प्रकृति है। बस! पैरेंट्स चिढ़ जाते हैं। कभी टीचर भी तंग आ जाते हैं। कारण! उनको पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ भी तो पसंद नहीं। घर से पढ़ते हुए जाओ। स्कूल से पढ़ते हुए आओ और आते ही फिर पढ़ो। या फिर हर वह कंपीटीशन जीतो जिसमें भाग लेते हो। नबरों की हौड़ और रैंक की दौड़ ने बच्चों से उसकी भवनाएं,संवेदनाएं,लड़कपन,नटखटपन,खट्टी-मीठी शरारतें सब छीन  ली। उसे एक चलता फिरता गुड्डा/गुड्डी बना दिया गया। क्योंकि पैरेंट्स बच्चों में अपने अधूरे रहे सपने देखने लगते हैं। अपनी इच्छा,कामना बच्चों की मार्फत पूरा करना चाहते हैं। जो पैरेंट्स खुद ना बन सके वह बच्चों को बना अपनी कुंठा समाप्त करने की इच्छा पाल लेते हैं। गिनती के बच्चे होंगे जिनको अपनी पसंद का विषय चुनने की छूट होती है। बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपनी मर्जी से रास्ते तय करते हैं। समाज की बदलती सोच ने बच्चों को उम्र से पहले ही बड़ा कर दिया। शिशु अवस्था से सीधे जवानी। बचपन! सॉरी,समय नहीं है। इसलिए नो ब्रेक!  ऐसा बड़ा भी किस काम का जो दही में ही पड़ा रहे। ऐसे बड़े होने वाले अपनी जिंदगी का कौनसा बोझ उठाएंगे! जिसमें समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का तनाव होगा। पैकेज की चिंता होगी।  बॉस के नित नए टार्गेट होंगे।  पैरेंट्स की इच्छा और  पत्नी की अलबेली कामनाएँ होंगी। साथ में होगा सोशल स्टेटस का दवाब। ना गली में कोई खेल रहे ना घर में कोई बच्चे। दूध पीने वाले बच्चों की पीठ पर पिट्ठू बैग टांग स्कूल भेज कर समाज में अपने आप्क अग्रणी रखने का अहम  पुष्पित,पल्लवित किया जाता है। अब लौटना मुश्किल है। बहुत देर हो चुकी। जो बचे हैं वे भी इस हौड़ में शामिल होने की दौड़ में अपना सुख चैन गंवा चुके हैं। इसका अंत क्या होगा समय के अलावा कौन जानता है?

Thursday, November 8, 2012

भगवानों की बिक्री का सीजन है ये......सच्ची

श्रीगंगानगर-भगवान की बिक्री का सीजन है इन दिनों। भगवान इसका हो, उसका हो, किसी का हो, सब बिकेंगे। दुकान दुकान बिकेंगे। चौराहों पर सेल लगेगी। आवाज लगा लगा कर बेचे जाएंगे। गरीब का छोटा भगवान। अमीर का बड़ा भगवान। हर साइज का। हर कीमत का। सस्ते से सस्ता और महंगे से महंगा भगवान। जैसी जिसकी जेब उसी प्रकार का भगवान। कागज का भगवान। साधारण फ्रेम में लगा भगवान। महंगे डिजायन वाले फ्रेम में सजा भगवान। सोने -चाँदी का बड़े बड़े वैभव शाली शो रूम में बैठा  भगवान। सब के सब बिकाऊ। भांति भांति के भगवान। अलग अलग रूप धरे भगवान। कोई देवी के रूप में तो कोई गुरु के रूप में। जिसकी जैसी चाह वैसा भगवान उपलब्ध है इस बाजार में। गरीबों का भगवान हाथ ठेलों पर इधर उधर गलियों में आवाज लगाकर बेचा जाता है। अमीरों के भगवान सजे बैठे रहते हैं बड़े बड़े सौ रूम में,उनको खरीदने उनके पास जाना पड़ता है। दुकानों पर पैरों में पड़े हैं हमारे भगवान बिकने के लिए। जूते लगें या झूठे सच्चे हाथ,तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता भगवान को। मन के काले व्यक्ति खरीदें या मन के उजले,कोई अंतर नहीं इस भगवान के। जिसने खरीदा उसके साथ उसे जाना ही है। जब तक नहीं बिकता तब तक उसे यहाँ वहाँ जहां मर्जी हो पटक दिया जाता है। उसके साथ कैसा भी व्यवहार हो कोई दंगा नहीं भड़कता। किसी की आस्था पर चोट नहीं लगती। धार्मिक से धार्मिक व्यक्ति की भावना आहात नहीं होती। कोई भगवान को खरीद हाथ में ले जाता है कोई बड़ी गाड़ी में। कोई रिक्शा में अपने पैरों के पास रख ले जाता है। किसी को कुछ नहीं कहता। ये भगवान होता ही ऐसा है। बिकाऊ जो है। जो बिकने के लिए बाजार में आ गया उसकी क्या तो आत्मा और क्या उसका स्वाभिमान। कीमत लग गई तो फिर काहे की शर्म। बस, जैसे ही यह भगवान,दुकान,फैक्ट्री,ऑफिस या धर्मस्थल में स्थापित हो जाता है। तब यह किसी के बस में नहीं रहता। तब यह भगवान हो जाता है। गुरु हो जाता है। सच्ची का भगवान। जीता जागता गुरु। उसके बाद किसी की मजाल नहीं कि कोई उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाए। उसका अपमान करे। निरादर करे। प्रलय हो जाएगी। धर्म पर हमला मान कत्ले आम भी हो जाए तो कोई बात नहीं। यही है इस भगवान की करामात। जब तक बाजार में बिकाऊ था, निर्जीव रहा। सभी के सभी बरताव सहन किए। जैसे ही उसे स्थापित किया वह सिर चढ़ कर बोलने लगा। यही है असली भगवान। जब बिका तब मिजाज कुछ और जब सजा तब कुछ और। इंसान का मिजाज भी तो ऐसा ही है। स्थापित होते ही स्वभाव बदल जाता है। फिर वह चाहे इंसान के द्वारा गढ़ा,बनाया भगवान हो या भगवान के द्वारा बनाया गया इंसान। सच कहता हूँ ....हमारे तराशे हुए पत्थर मंदिर में भगवान बने बैठे हैं।

Saturday, November 3, 2012

गुलाब की तरह थे करवा चौथ पर पतियों के चेहरे


श्रीगंगानगर-दोस्त की मैडम 24 घंटे में से कुछ घंटे ही बिना मेकअप के रहती है। सजी संवरी  गुड़िया सी  लगभग हर समय। दोस्त घर में हो या ना हो, उसने तो बनी ठनी रहना है। बीस सालों में आज तक दोस्त को ये नहीं पता कि वो अधिक सुंदर कैसे दिखती है। मेक अप के या बिना मेक अप के। हर रोज एक सा वातावरण। कल भी वैसी ही थी। करवा चौथ पर भी वैसी की वैसी। बस कपड़ों का रंग थाओड़ा बहुत बदला होगा। । कुछ तो डिफरेंट होना ही चाहिए। तो जनाब! बीबी किसी  की कैसी भी हो पति को सजी संवरी ही अच्छी लगती है। आँखों को लुभाती है। मन को भाती है। ये किसी  एक पति  की चाहत नहीं सभी की है। करवा चौथ पर सभी पतियों के चेहरे गुलाब के फूल की तरह खिले हुए थे। मन में उमंग और आँखों में शरारत थी। जैसे उल्लास टपक रहा हो।  साइकिल के कैरियर पर सिंगरी बैठी पत्नी करवा चौथ पर पति को जरा  भी भारी नहीं लगी। पत्नी को इस रूप में देख वह आनंदित था। पिंक कलर की ड्रेस में,हाथ पांव में मेहँदी लगाए कई बच्चों की माँ के बावजूद पत्नी के साथ पैदल जाते हुए भी पति की निगाह उसी की तरफ थी। यह उसका चाव था अपनी  पत्नी के लिए। उम्र अर्थ हीन  है। करवा चौथ पर बाइक पर बैठी चारमिंग पत्नी का कमर,कंधे और पैर पर रखा हाथ उसे बोझ लगने की बजाए सुकून प्रदान कर रहा था। महंगी- सस्ती गाड़ी में मेकअप से लक दक  ओवरवेट पत्नी को घुमाते हुए पति को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे शादी अभी अभी हुई हो। ये भाव है सभी पतियों के। सभी पति अपनी पत्नी को इसी प्रकर डॉल बनी हुई देखना पसंद करते हैं। बीबियों का यही रूप पतियों को प्रफुल्लित करता है। करवा चौथ पर तो सजना ही था सजना के लिए। वरना हर रोज वही नून तेल,रसोई,बच्चे साथ में चिक चिक। बेशक करवा चौथ पर पति की जेब ढीली हुई। इसके बावजूद सभी के चेहरों पर रंगत थी। इसकी वजह थी पत्नी का सजना संवरना। रोज तो ऐसा मुमकिन नहीं। इसलिए पत्नी का इस दिन का रूप आँखों में बसा दूसरी करवा चौथ का इंतजार करता है पति। ऐसा नहीं कि इस बीच पत्नी पूरा साल सूगली रहती है। सजती है कहीं जाना हो तो। संवरती भी है पीहर जाने के लिए और दूसरे वार त्योहार पर । परंतु जो करवा चौथ पर सजना होता है उससे सजना ऊपर से चाहे ना खुश हो अंदर खूब खुशी महसूस करता है। अब जो रोज ही सजी रहे वह अपने अपने पति को कैसी लगती है यह  दोस्त से पूछना पड़ेगा। करवा चौथ के उपलक्ष में दो लाइन पढ़ो....पहले मुझसे नजर उतरवाना,चांद देखने बाद में जाना।

Friday, November 2, 2012

करवा चौथ पर बेबस और मजबूर होता है पति


श्रीगंगानगर- शादी के बाद पहली करवा चौथ। हल्की मीठी ठंड। पत्नी तड़के उठी। बरतनों की खटर पटर हुई। अलसाए पति ने पूछ लिया,क्या हुआ इतनी जल्दी? पत्नी पंजबान थी। उसी स्टाइल में जवाब दिया, तेरा ई मरना कड़ दी पई आं। पति  ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ। पत्नी को लुभाने वाली शर्ट पहन ली। देखा तो एक बटन टूटा हुआ। पत्नी से बटन लगाने को कहा। सोचा फिल्मी हीरोइन की तरह बटन लगाएगी। धागा मुंह से तोड़ेगी। रोमांस हो जाएगा। किन्तु ख्वाब पर करवा चौथ का व्रत गिर गया। पत्नी बोली,आज मेरा व्रत है। सुई हाथ में नहीं लेनी। या तो खुद लगा लो या दूसरी शर्ट पहन लो। तुम भी ना मुझे तंग करने के बहाने ढूंढते हो। तुम्हें पता होना चाहिए मेरा व्रत है। करवा चौथ के व्रत के दिन सबसे अधिक दुर्दशा किसी प्राणी की होती है तो वह है पति। मीडिया चाहे किसी भी प्रकार का हो,इस दिन या इससे पहले केवल पत्नी के बारे में ही लिखता और दिखाता है। उनको खर्च करने के तरीके बताता है। ऐसे सजो। ये खरीदो। ये पहनो। पति कुछ चूँ चपर करे तो पत्नी बोल देती है,ये सब आपके लिए तो कर रही हूं। आपकी लंबी उम्र के लिए। आपकी सेहत के लिए। खुशहाली के वास्ते। सीधे नहीं कहती कि मुझे सारी उम्र सोलह सिंगार  करने है। सेहत इसलिए कि कहीं ये मुस्टंडा बीमार हो गया तो पैसे भी खर्च होंगे, सेवा करनी पड़ेगी वह अलग से। खुशहाली! पति खुशहाल तो पत्नी की पो  बारह पच्चीस। पति के नाम पर खुद के लिए सब कुछ।  यूं लगता है जैसे पति बलि का बकरा हो। तड़के पेट भरा। बाद में सिंगरी।  बनी-ठनी कभी उसकी पत्नी से बात की कभी इसकी। खूब उल्लास और उमंग होती है। रात तक भूखी! जैसे ही पति के घर आने का समय हुआ। चेहरे पर भूख के भाव आ गए। पत्नी की ऐसी सूरत देख पति को दया आएगी ही। क्योंकि पति तो  बचपन से ही दयालु किस्म का जीव होता है। वह भी तभी भोजन करेगा जब पत्नी करेगी। मेरा एक दोस्त तो पत्नी के लिए खुद भी करवा चौथ का व्रत रखता है। मजबूरी है। क्योंकि उस दिन वह खाना बनाने से इंकार कर देती है। सजावट बिगड़ने का डर  जो  होता है। दूसरा, शाम को पत्नी को उसकी हेल्प मिल जाती है। पति की इतनी कुर्बानी के बावजूद हर कोई पत्नियों की बल्ले बल्ले करता है। विश्व में शायद ही कोई उदाहरण हो जिसमें पति नामक जीव की आर्थिक,मानसिक प्रताड़ना के बावजूद उसे  ये कहा जाए कि मेरी जां, ये सब किसके लिए! आप ही के लिए तो है! वैरी गुड। वैरी नाइस! ये तो वही बात हुई, जो कुछ पड़ा,रखा ढका सब आपका,लेकिन हाथ किसी को नहीं लगाना। जिनकी पत्नियाँ कमाती हैं उनके बारे में कुछ नहीं। वे तो बस चुप चाप  देखते हैं। बोले तो यही जवाब मिलेगा,”आपसे तो कुछ नहीं मांगा। खुद कमाती हूं। हो गई करवा चौथ। इसे ठीक इस प्रकार समझा जा सकता है। पत्नी सरकार है और पति जनता। सरकार जनता के कल्याण के नाम से जनता को ही भांति भांति से लूटती है ना! बस तो! सेम टू सेम। दो लाइन पढ़ो... करवा चौथ की अकड़ दिखाएगा, तो बची खुची शान से भी जाएगा,इसलिए हे पति! शर्म ना कर, रोज की तरह आज भी पत्नी से डर।

Thursday, November 1, 2012

धर्म की चादर में लिपटा कुछ और ही है ये


श्रीगंगानगर- आधी रात का समय....दूर बहुत तेज आवाज में ईश्वर की आराधना । रात के सन्नाटे में यह आराधना मन को बजाए सुकून देने के दिमाग की नशों में झिंझोड़ रही हैं। बेशक धर्म के बारे में अधिक नहीं जानता। अध्यातम को बहुत कम समझता हूं। धर्म स्थल पर भी कभी कभार ही जाना होता है। इसके बावजूद सौ प्रतिशत धार्मिक हूं।  पूरी तरह आस्तिक हूं। हर स्थान पर ईश्वर की सत्ता को मानता हूं। ईश्वर के अस्तित्व को दिल से स्वीकार भी करते हैं। सभी कहते हैं कि कोई भी धर्म किसी को भी किंचित मात्र दर्द,परेशानी,तकलीफ नहीं देता। जो देता है, वह धर्म हो ही नहीं सकता। वह केवल और केवल धर्म की चादर ओढ़े कुछ और ही  होगा। धार्मिक अनुष्ठान परिवार की सुख शांति,खुशी,उपलब्धि के लिए ही करवाया जाता है। ईश्वर,चाहे उसका रूप कैसा भी हो, वह तभी प्रसन्न होगा, जब उस अनुष्ठान से किसी को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई दिक्कत न हो। अब जो तेज आवाज दूर दूर तक गूंज गूँजती है, उससे कितने ही परिवारों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। कोई बच्चा सो नहीं पाता। किसी बुजुर्ग ने अभी ट्राइका की गोली ली थी, वह बेकार हो गई। किसी को पढ़ना है। कोई तीन घंटे नींद ले अपने काम पर जाएगा। कोई थक कर अभी लेटा ही था कि स्पीकर का शोर कानों से होता हुआ दिमाग को खट खट करने लगा।  सड़क पर टैंट लगा कर आने जाने का रास्ता बंद कर दिया गया। गली में छोटे बड़े वाहन खड़े हैं। किसी के घर का गेट रुक गया। एक परिवार की सुख शांति के लिए पूरे मोहल्ले की शांति जाती रही। आयोजक क्या सोचते हैं कि मोहल्ले वाले उनको दुआ दे रहें होंगे कि बहुत बढ़िया...क्या कहने....ईश्वर  हर रोज इस सड़क पर हर रात इस प्रकार के आयोजन करवाए। गलत...सौ प्रतिशत गलत। कोई दुआ नहीं देता। हर कोई अंदर ही अंदर परेशान होता है। किन्तु बोलता नहीं। डरता है, अपने आप से नहीं तो उससे जरूर जिसके यहां आयोजन है। उससे नहीं तो समाज से। समाज का डर नहीं भी लगता तो  शिकायत कर बुरा बनने का डर तो लगता ही है। इतना ही नहीं जो इस संबंध में बोले वही धर्म का दुश्मन। एक नंबर का नास्तिक। कोई उसकी भावना को नहीं समझेगा। कोई ये जानने की कोशिश नहीं करेगा कि असल में रात को इस प्रकार के आयोजन से सच में कितने ही लोगों को जबरदस्त मानसिक परेशानी से दो चार होना पड़ता है। अब जिससे किसी को परेशानी हो वह धर्म तो नहीं हो सकता। कोई माने चाहे ना माने। धर्म तो वह जो मन के संताप को हर ले। धर्म तो वह जो मानसिक शांति प्रदान करे। असली धर्म तो वही जो इंसान को दूसरों के प्रति दया करना सिखाए। उसकी परेशानी को कम करे। परंतु इससे किसी को क्या मतलब। हमने तो धर्म करना है। चाहे उसका तरीका कितना ही अधार्मिक,अनैतिक,दूसरों को पीड़ा दायक ही क्यों ना हो। आयोजन किसी को जान बूझकर  परेशान करने के लिए नहीं होते। बस, थोड़ी अनदेखी दूसरों के लिए परेशानी बन जाती है। कोई ये सोच ले कि अगर ऐसा दूसरा करता तो उसकी टिप्पणी क्या होती? इतने से ही सब ठीक हो जाए। क्योंकि उसके बाद वह लाउडस्पीकर की आवाज अधिक ऊंची नहीं करेगा। साथ में इस बात का भी ध्यान रखेगा कि वाहन से किसी के घर का गेट या सड़क ना रुके। इतना करने मात्र से ही आनंद अधिक जाता है।  सब की परेशानी भी समाप्त।  कचरा पुस्तक की लाइन है...लंगर हमने लगा दिये जीमे कई हजार, भूखे को रोटी नहीं ये कैसा धर्माचार।