Tuesday, December 24, 2013

सपनों की अनोखी दुनिया है फेसबुक


श्रीगंगानगर-सपनों की एक अनोखी दुनिया है फेसबुक. एक अंजानी दुनिया. अलौकिक संसार.ऐसा संसार जिसमें अपने हैं भी और नहीं भी. इस निराली दुनिया में ख़ुशी,गम,सुख,दुःख,अवसाद,उल्लास,उमन्ग,तरंग,निंदा,आलोचना,प्रशंसा,बुराई,अच्छाई,पक्ष,विपक्ष,काम के ,बेकार,मोती,पत्थर सब के सब मिल जाएंगे. एक से एक विद्वान मिलेंगे तो एक से बढ़कर लम्पट भी टकरा जाएंगे आपसे. जिंदगी का कोई भाव ऐसा नहीं जो आपको इधर ना मिले. बे भाव को भी इधर भाव मिल जाता है. आप वास्तविक दुनिया में किसी के हैं,नहीं हैं. कोई आपका है नहीं है. मगर इधर सब आपके हैं और आप सबके हो. जिनसे आपको फेस टू फेस मिलना सम्भव ना हो. जो जीवन की इस दौड़ में आगे पीछे हो गए हों,वे भी आपको इधर घूमते मिल जाएंगे. या सम्भव है आप उनको विचरण करते हुए मिल जाओ.इस मिलन से कितनी ख़ुशी होगी इसकी कल्पना करो. ऐसा हर रोज होता है. किसी को हम ढूंढ लेते हैं तो कोई हमें.फेसबुक केवल मिलने  मिलाने का ही  काम नहीं करती.और भी बहुत कुछ है इसके जिम्मे.  इसके माध्यम से तो कितनी ही घटनाओं की जानकारी मिनटों में पूरी दुनिया में फ़ैल जाती है. कितने ही समाचार,फ़ोटो मिडिया में बाद में दिखाई देते हैं फेसबुक पर पहले.कितने ही समाचार फेसबुक से लिए जाते हैं मीडिया के द्वारा. केवल घटना मात्र नहीं .उस पर विद्वानों की टिप्पणियां. ऐसी ऐसी की क्या कहने. किसी की बखिया उधेड़ी जाती है तो कोई सिलाई करने वाला नहीं मिलता. फेसबुक  हर प्रकार की भावनाओं को व्यक्त करने का शानदार माध्यम है. कोई ख़ुशी है, बांट लो. कोई गम है, शेयर कर लो. कोई सन्देश देना है,दे दो. कोई रोकने वाला नहीं. टोकने वाला नहीं.विद्वानों के लिखे लेखों से रुबरु करवाता है यह. एक से एक जानकारी इससे मिल जाती है. विचारों का आदान प्रदान किया जाता है. आपके क्षमता दूर तक पहुंचाने का बढ़िया साधन है फेसबुक. जिन शहरों में आप कभी गए नहीं,वहां तक आपकी अप्रोच बढ़ा सकता है ये फेसबुक. सब कुछ है इसमें. अच्छाई है तो बुराई भी कम नहीं. गन्दी से गन्दी बात इसमें मिल जायेगी. तो संतों की वाणी की भी इसमें कोई कमी नहीं है. बस,आपको जो पसंद है वैसा हो जाता है. अब ये तो आप और हम पर निर्भर है कि हम इस समंदर में से मोती निकालते हैं या पत्थर. हमारी सोच पर निर्भर है कि हमारे दिलो दिमाग को क्या चाहिए. जो चाहिए वैसा इसमें मिल जाएगा. कोई कमी नहीं है इसके खजाने में. सम्भव हैं आपके वास्तविक दुनियां  में कोई दोस्त लेकिन इधर आप चाहे जितने दोस्त बना सकते हैं. फेसबुक लड़कियों के लिए खौफ भी हैं. उनके लिए जो बड़े सहज और सरल तरीके से अपने बारे में सब कुछ इस पर अंकित कर देती हैं.उनके भटकने का जरिया भी बन जाता है कई बार. कुछ गंदे दिमाग के लोग इसमें केवल गन्दगी ही डालने का काम करते हैं. वे शायद असल जीवन में भी ऐसे ही होते होंगे. मगर इनसे बचा जा सकता है. बचते भी हैं.आखिर गन्दगी डालने वाले अलग थलग पड़ जाते हैं समझो उनका फेसबुक बायकॉट हो जाता है. थोडा संभल कर इधर सैर को आएं तो इस दुनिया में बड़ा ही आनन्द है. अति तो हर चीज की बुरी होती है. तो इसकी भी अच्छी कैसे हो सकती है. 

Monday, December 23, 2013

राजनीति में एक उजली सुबह की उम्मीद "आप" से

श्रीगंगानगर-नए चेहरे.नए नकोर सपने. अलग प्रकार की  नई  सोच. कुछ कर दिखाने का जुनून,उत्साह,उमंग,इरादे. यही तो है राजनीति में एक नया प्रयोग.घिसे पिटे मुरझाए,मुर्दा  पुरानी शक्लों से बिलकुल अलग. उनसे बिलकुल अलहदा जिनको देख देख कर राजनीति से घिन   होने लगी थी. जिनके लिए मांगे गए थे "नोटा". राइट टू रिजेक्ट. बात ये नहीं कि "आप"  की सरकार कितनी लम्बी चलती है. बात ये कि गंदली राजनीति में,कीचड से लथपथ कही जाने वाली राजनीति में कुछ नया तो शुरू हुआ. सरकारें तो जाने माने राजनीतिज्ञ चरण सिंह और चंद्रशेखर की भी नहीं चली थीं. अटलबिहारी वाजपई की सरकार केवल 13  दिन में बैठ गई थी.   इससे उन लोगों का  महत्व तो  कम नहीं हुआ जो आगे आए नए विचारों के साथ. "आप" कौन लोग हैं सब जानते हैं. आम से खास होने का मतलब आज अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों से अधिक और कौन जान सकता है. जिन्होंने कभी राजनीति नहीं की. वे एकदम से आते हैं और दिल्ली की सत्ता हासिल कर लेते हैं. उस दिल्ली की जहां लगातार कांग्रेस ने तीन बार सरकार बनाई.बेशक आप को कोई अनुभव नहीं है सरकार चलाने का. राजनीति करने का. तो उनको आंदोलन करने का कौनसा अनुभव था. उनके साथियों ने कौनसा हड़तालें की थीं. वह भी तो किया. जनता की आवाज बने. जनता को जोड़ा.उनकी दम तोड़ती उम्मीदों को जिन्दा किया. राजनीति से नाउम्मीद हो चुके आम जन को एक नया नेतृत्व देने का भरोसा दिलाया.जनता ने भी विकल्प के रूप में आप को स्वीकार कर सरकार की टोपी सर रख दी. हर तरफ यही प्रश्न,सरकार कैसे चलेगी? आप वादे कैसे पूरे करेगी? वादे  व्यावहारिक   नहीं.इससे पहले भी इसी प्रकार के प्रश्न मिडिया में थे.आप राजनीतिक दल कैसे बनाएंगे? कैसे चलाएंगे?चुनाव कैसे लड़ेंगे? जीत कैसे मिलेगी? सब कुछ जनता के सामने हैं. होता चला गया.बड़े बड़े राजनीतिज्ञों के करियर पर एक बार तो झाड़ू फेर दी. सवाल अपनी जगह जायज भी थे और आज भी हैं. क्योंकि कई दशकों से ऐसी सोच विकसित ही नहीं हुई कि ऐसा भी हो सकता है जैसा आप कहते हैं. उम्मीद ही नहीं होती थी किसी राजनीतिक दल से कि वह आम जन को वादों और आश्वासन के अतिरिक्त कुछ देगा. इसमें कोई शक नहीं कि आप के भी अभी तक वादे हैं. अब उनको मौका मिला है वे अपने वादे किस प्रकार से पूरे करते हैं उस पर देश की निगाह टिकी है. कितने वादे पूरे होते हैं! सीएम का बंगला,बड़ी सुरक्षा न लेने की बातों पर कितना अमल होता है. अरविन्द केजरी वाल सीएम बनने के  बाद आम जन को कितना उपलब्ध होते हैं,यह  कुछ दिन बाद पता लगेगा किन्तु इतना जरुर है कि राजनीतिक लोगों के प्रति बढ़ते अनादर के इस दौर में कुछ तो ऐसा हुआ है जिसकी वजह से आम आदमी आप के किसी नेता को अच्छी नजर से अभी देखे चाहे ना लेकिन देखने के बारे में  सोच तो सकता है.भ्रष्टाचार से तंग आया आम आदमी उससे निजात पाने के सपने एक बार फिर देखने लगे तो बुरी बात क्या है. अभी शुरुआत है. ठीक वैसी ही जैसी 1985 -86 में असम में हुई थी जब कॉलेजियट ने सरकार बनाई और चलाई थी.आप के माध्यम से राजनीति में एक नई पूरी तरह उजली सुबह की उम्मीद तो कर ही सकते हैं.दिन आगे कैसे बढ़ेगा?वह कैसा होगा? उसमें क्या कुछ घटित होगा? कौन चलेगा कौन नहीं,शाम, और रात कैसी आएगी? यह थोडा समय बीत जाने के बाद आप और हैम के सामने आ जाएगा.  

Saturday, December 14, 2013

आप की ईमानदारी देश पर अहसान नहीं है


श्रीगंगानगर-किसी काम में,बात में  मीन मेख निकलना सबसे आसान है. करना कुछ भी नहीं.  बस ऊँह बोल के  गर्दन ही तो उधर घुमानी है झटके से. दूसरे की बात हो या काम हो गया उसका तो बंटाधार. देता रहे सफाई. जैसे मैदान में क्रिकेट खेल रहे खिलाडियों के खेल पर हम लोग टिपण्णी करते हैं, बेकार खेला,. ऐसे नहीं वैसे शॉट मारना चाहिए था. राम लाल की जगह शाम लाल से बोलिंग करवाते तो जीत जाते. ऐसी ही सौ प्रकार के कमेंट्स. मैदान के बाहर बात करने में जाता क्या है. मगर जब मैदान में खेलना पड़े तो पता लगे  कि कैसे खेला जाता है. यही मीन मेख निकालने का काम अरविन्द केजरीवाला एंड कंपनी मतलब आप  कर रही है.  महीनों हो गए इनको ऐसा करते हुए. जनता ने सोचा इनको दो मौका. ये बढ़िया चलाएंगे सरकार. क्योंकि हर बात पर नुक्ता चीनी. तो तुम संभाल लो भाई. सुना है और पढ़ा है कि आप  की टीम ईमानदार है. होगी! उनकी क्या किसी की ईमानदारी भी ना तो देश पर कोई अहसान है और ना किसी दूसरे पर. ईमानदार होना ही चाहिए इंसान को.  लेकिन ईमानदारी का ये मतलब तो नहीं कि आप घमंड में चूर हो जाओ. ईमानदारी के गुरुर में रहो. ईमानदारी का नशा आपके सर चढ़ कर बोलता रहे और जनता सुनती रहे. वह सब जो आप बोलते हैं. कितने दिन हो गए जनता की निगाह आप पर टिकी है. पूरा देश आप की तरफ देख रहा है. आप की वाह वाह हो रही है. मगर ये तो कोई राजनीति नहीं है कि ना समर्थन देंगे ना लेंगे. जनता ने जो दिया उसको सर माथे लगा चुचकारो. उसको  थैंक्स कहो. जैसी स्थिति है उसके अनुसार आगे कदम बढ़ाओ. ये क्या मजाक है कि ना खुद सरकार बनानी ना किसी को बनाने  देनी. जनता  ऐसे ही चाहती है तो ऐसे ही काम करके दिखाओ. रोज हर किसी की मीन मेख निकालने वाले आप को जब जनता ने मौका दिया तो पलायन के बहाने खोजने लगे. आप जब से उप-राज्यपाल से मिल के आए हैं तब से तो हालत ख़राब ही हो गई. कहते हैं बीजेपी-कांग्रेस के प्रस्ताव को जनता के बीच लेकर जाएंगे. दिल्ली के विभिन क्षेत्रों में सभा कर जनता से सरकार बनाने के बारे में पूछेंगे. लो कर लो बात. श्रीमान जी आपकी पार्टी को जो सीट मिली है वह जनता का  जवाब ही तो है.अब नए जनमत की क्या जरुरत पड़ गई.जनता ने  तुम्हे चुनकर जिम्मेदारी दे दी. अब बनाओ सरकार या बैठो विपक्ष में.जो निर्णय करना है करो विवेक से.कुछ करके दिखाओ. फिर जाना जनता के बीच.आप को जनता का निर्णय मिल जाएगा.  आप ने एक बार जनता के सामने काम किया तो उसने सर आँखों पर बैठाया. अब जो काम सौंपा है उसे शुरू करो. यूं बार बार जनता के बीच में जाने का मतलब कि आप में   आत्म विश्वास नहीं है. आप अपने आप को सरकार चला पाने के योग्य नहीं समझते.कहीं ऐसा ना हो कि जनता आप को ऐसा कर दे कि फिर कभी कोई उसे याद ही ना करे.लोकतंत्र में जनता की भावनाओं का सम्मान ही सबसे बड़ी बात है.परन्तु आप को पता नहीं क्या हुआ है. 

Monday, December 9, 2013

चिंता करण दी कोई लोड़ नई...


श्रीगंगानगर-दोपहर के लगभग बारह बजने को है. गांव के अंदर घुसते ही मैदान में चारों तरफ गाड़ियां ही गाड़िया खड़ी हैं. लोगों के अलग अलग झुण्ड आपस में चर्चा करते हुए. चबूतरे पर बड़ी संख्या में लोग एक व्यक्ति को घेर कर बैठे हुए हैं. व्यक्ति ने सर पर कोई टोपी ले रखी है और कन्धों पर ड़ाल रखा है एक शॉल.कोई आकर हाथ मिलाता है कोई प्रणाम करता है.कुछ लोग उठते हैं तो दूसरे बैठ जाते हैं. विचार विमर्श होता है. बात चीत चलती रहती है. कुछ क्षण पश्चात टोपी वाला व्यक्ति उठता है और विनम्रता से ये कहता है कि सर पर पानी ड़ाल लूं,नहा लूं, कुछ खा के दवा ले लूं. तब तक आप करो आपस में बातचीत. इतना कह वे अंदर घर के अंदर की तरफ चले, रस्ते में कोई उदास व्यक्ति मिला. उसका कंधे पर हाथ रख बोले, फेर की होआ...हार जित होंदी रहंदी ए. इतना कह वे अंदर चले गए. ये था 25 बीबी गांव. जहां सुबह से लोगों का तांता लगा हुआ था गुरमीत सिंह कुन्नर से मिलने का. श्री कुन्नर वहीं सुबह से ही लोगों से मिल रहे थे जहां हमेशा मिला करते थे. . चेहरे पर हलकी मुस्कान लिए.अंदर गुरमीत सिंह कुन्नर की बीवी बलविंदर कौर की हिम्मत तो इससे भी बढ़कर. चेहरे पर मुस्कान से स्वागत. पराजय की कोई टेंशन नहीं. वहीँ अंदाज मिलने का और वही चाय लस्सी पिलाने का.बस एक वाक्य में ही उन्होंने जैसे सब कुछ कह दिया, गहलोत सरकार ही हार गई. हमारी क्या बात है. वैसे भी हार की चिंता,गम टेंशन वो करे जिसके लिए राजनीति कमाई का साधन है. हमने क्या करना था. पल्ले से लगे तो लगे. सुबह से शाम तक लोग आते थे. फोन पर काम हो जाता था. हार जीत की कोई बात नहीं,बस सब के सब खुश रहें और किसी को कोई दुःख ना हो.यही बहुत है. चुनाव तो आते जाते रहते हैं. हार के बारे में कोई उनसे थोड़ा अफ़सोस करे भी तो यही कहते हैं वे सब, चिंता करण दी कोई लोड़ नई. इस बीच कुछ महिलाएं आती हैं और वे खड़ी हो उनसे मिलने के लिए चली जाती हैं.उनके चेहरे से ये नहीं लगता कि कुछ घंटे पहले उनके पति मंत्री थे और अब पराजित कांग्रेस प्रत्याशी. घर में वैसी ही चहल पहल और रौनक. नहीं थी तो वह सरकारी लाल बत्ती वाली गाड़ी. एक व्यक्ति ने तो गुरमीत सिंह से गांवों के दौरे का प्रोग्राम बनाने को कहा. गुरमीत सिंह बोले,अभी नहीं. एक महीने बाद. उनके आस पास भीड़ देख कर कोई अंजान व्यक्ति ये नहीं कह सकता कि ये एक दिन पहले चुनाव में हारे हुए किसी व्यक्ति के यहां है. एक साइड में दो चार व्यक्तिचुनाव की समीक्षा करने में लगे थे. गत चुनाव के बाद और आज के दिन में एक फर्क जरुर था वो ये कि उस दिन काफी लोग फूल माला भी लेकर आये थे. किसी के हाथ में मिठाई भी थी. वह आज नहीं था.भीड़ के लिहाज से आज का दिन उन्नीस नहीं इक्कीस ही कहा जा सकता है.

विधायक को चुन कर भूल जाते हैं हम


श्रीगंगानगर-अब तक चुने गए चौदह विधायकों में से सात विधायक सत्ता पक्ष के साथ रहे और पांच विपक्ष में बैठे. दो को इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. क्योंकि इनमें से एक तो निर्दलीय था और आज चुनी गई नई विधायक जमींदारा पार्टी की है. अब ना तो निर्दलीय को विपक्षी माना जा सकता है और ना जमींदारा को. इनको सत्तारूढ़ पार्टी का तो किसी भी हालत में नहीं कहा जा सकता. जनता किस को चुनती है ये उसका अधिकार है. लेकिन चुनने के बाद हाय तौबा मचाए कि हाय हमारे विधायक तो विपक्षी ही होते हैं.हाय-हाय वे तो किसी काम के नहीं. तो भाई उनको चुनता कौन है! आप और हम ना! और तो और हम उनको चुन कर भूल और जाते हैं. विधायक कुछ करे ना करे,जनता चुप्प. आज तक इस शहर के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब आम मतदाता ने किसी विधायक के पक्ष या विपक्ष में कोई आवाज उठाई हो. कुछ करे तो उसको शाबाशी नहीं देनी और कुछ ना करे तो लानत नहीं भेजनी. हम तो चुन कर भूल जाते हैं. कोई सही बात करे भी तो उसकी आवाज में आवाज नहीं मिलानी. यह किसी का कसूर नहीं. यहां का कल्चर ही ऐसा है. अब भी ऐसे ही होना है. किसको याद रहेगा कि जमींदारा पार्टी ने इस क्षेत्र को डबल डेकर नहर बना कर देने की बात कही है. ये भी भला कौन याद रखेगा कि इसी पार्टी ने पाक प्रधानमंत्री से मिलकर 2014 में हिन्दुमलकोट बॉर्डर खुलवाने का वादा किया है. हम तो कभी उन विधायकों के सामने ही नहीं बोले जो पूरा दिन नगर की सड़कों पर पैदल घूमते मिल जाया करते थे. उनको भी कुछ नहीं कहा जो कई दशक से नगर को चंढीगढ़ का बच्चा बनाने के सपने दिखाते रहे हैं. फिर नए को तो कहने की हिम्मत ही किसकी होगी. वह भी उसे जो ना तो गंगानगर में रहता है और ना उन तक सीधे किसी की अप्रोच है.अभी तो विधायक बने हैं सम्भव है वे जनता से सीधा संवाद रखने का कोई जरिया बनाएं.वैसे हमारी जनता इस बात की परवाह भी नहीं करती. क्योंकि हम तो चुन कर भूल जाते हैं. आज तक किसी को कुछ भी नहीं कहा. अब क्या कहेंगे. हमें काम भी क्या हैं जो उनको पास जाएं. वैसे आपको बता दें कि जो पहले दो विधायक कांग्रेस के रहे. तब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता थी. 1962 में निर्दलीय केदारनाथ विधायक चुने गए थे. उसके बाद भी वे दो बार चुने गए. तब प्रदेश में कांग्रेस सरकार थी और हमारे विधायक दूसरी पार्टी के. 1977 ,1980 में उसी पार्टी का विधायक चुना गया जिसकी सरकार बनी. 1985 में फिर विधायक किसी और पार्टी का और सरकार कोई और. 1990 में यहां का विधायक सत्तारूढ़ पार्टी का था. 1993 में गंगा घर चल के आई.हमें ऐसे व्यक्ति को विधायक चुनने का मौका मिला जिसे मुख्यमंत्री बनना था. हमने उसे तीसरे नंबर पर धकेल दिया. 1998 में हमारा विधायक सत्तारूढ़ पार्टी का था. जो मंत्री भी रहा. 2003 में भी यही स्थिति थी. बीजेपी का विधायक और सरकार भी इसी पार्टी की. 2008 में फिर उलटा. विधायक बीजेपी का और सरकार कांग्रेस की.इस बार तो और भी अलग हो गया. विधायक जमींदारा पार्टी की. आईपीएस की बीवी और सरकार बीजेपी की. हम फिर चुप रहेंगे. क्योंकि हमें तो विधायक को चुन कर भूल जाने की आदत है. 

Thursday, December 5, 2013

सालों बाद समझा
तेरी उस ख़ामोशी का अर्थ,
मेरी नादानी ने
मुझे गुनहगार बना दिया .

Saturday, November 30, 2013

इस 'हाथ' को कोई नहीं रोक सकता जनाब!


श्रीगंगानगर। 'हाथ' में लाठी लेकर बुजुर्ग मतदाता वोट डालने आयेगा। 'हाथ' में ही कानून का  डंडा ले पुलिस वाला पोलिंग बूथ पर कानून की  पालना करवायेगा। 'हाथ' में 'हाथ' डाल युवा मतदाता इतराते हुए पहली बार पोलिंग बूथ आयेंगे। पोता-पोती दादा-दादी का  'हाथ' पकड़ कर उन्हें वोट डलवाने के लिए लायेंगे। मतदाताओं के 'हाथ' में पर्ची होगी। 'हाथ' से 'हाथ' मिलाए जाएंगे। पोलिंग कर्मचारी अपने 'हाथ' से मतदाता के  'हाथ' की अंगुली पर स्याही लगाएंगे । अधिकारी 'हाथ' से ही जरूरी लिखा-पढ़ी करेगा। वोटर अपने 'हाथ' की किसी  अंगुली से अपना मनपसंद बटन दबाएंगे ।अधिकारी 'हाथ' के  इशारे से भीड़ को  लाइन में लगने के  लिए कहेगा। 'हाथ' के  इशारे से ही किसी को  बुलाएगा , बाहर भेजेगा। ईवीएम में कोई  झंझट होगा तो उसे ''हाथ' ही ठीक  करेगा। पोलिंग बूथ पर शाम को अंधेरा होने पर 'हाथ' ही बिजली का बटन दबायेगा । उडऩदस्ते 'हाथ' हिला-हिला कर भीड़ को  नियंत्रित करेंगे। प्रत्याशी व उसके  समर्थक  'हाथ' जोड़ते हुए पोलिंग बूथ पर आयेंगे,जाएंगे । 'हाथ' जोड़कर लोग एक-दूसरे को नमस्कार करेंगे । पोलिंग बूथ पर ही 'हाथ' से कोई बुजुर्ग उस समय किसी  को  आशीर्वाद देता हुआ दिख जायेगा , जब कोई  उन्हें प्रणाम करेगा। लड़ाई कहीं  हुई तो मारपीट 'हाथ' से होगी। बचाव भी 'हाथ' से किया जायेगा.। पुलिस किसी  को  पकड़ेगी तो भी 'हाथ' से । पोलिंग बूथ के  अंदर-बाहर जिधर भी देखों 'हाथ' ही 'हाथ' दिखाई देगा। यही 'हाथ' एक बड़ी पार्टी का  चुनाव निशान है। जबकि चुनाव आयोग कहता है कि  मतदाता स्लिप वितरण करने वाले स्थल या पोलिंग स्टेशन के   200 मीटर की  परिधि में चुनाव चिन्ह या उसका कोई  प्रतीक  चिन्ह नहीं ले जाया जा सकता। तो चुनाव आयोग का यह कानून इस 'हाथ' को कैसे रोकेगा। हर मतदाता दो-दो 'हाथ' लेकर पोलिंग बूथ  आएगा । चुनाव कार्य  से जुड़े अधिकारी-कर्मचारी किसी प्रत्याशी की  तरफदारी नहीं कर सकते , मगर 'हाथ' के  सामने वे भी बेबस हैं।'हाथ' के  साथ ड्यूटी करना उनकी  मजबूरी है। कोई  अपना हाथ कहां  छोड़कर आवे। हाथ छोड़कर आवें तो फिर सब के सब हथ कटे । बुजुर्ग की  लाठी पकडऩे वाला हाथ नहीं। सिपाही के  पास कानून का  डंडा पकडऩे वाला हाथ नहीं। चलो मतदाता तो पर्ची मुंह से पकड़ कर ले आएगा लेकिन बाकी ऐसे  कितने ही काम  हैं जो पोलिंग बूथ पर 'हाथ' बिना संभव नहीं। और कानून कहता है चूँकि  हाथ पार्टी का  चुनाव निशान है इसलिए उसे ले जाया नहीं जा सकता। कई बार किसी कानून की  पालना करवाना प्रैक्टिकली संभव नहीं होता। यहां भी ऐसा ही है।'हाथ' कोई हाथी, कमल, बैट, सिलाई मशीन, सिलेंडर तो है नहीं जिनको  ऑब्जर्वर रोक  देंगे। पुलिस पकड़ लेगी। लेकिन इस  'हाथ' का  क्या करोगे जो कांग्रेस का  चुनाव निशान है। आज तक  इस 'हाथ' को  पोलिंग बूथ तक  पहुंचने से कोई नहीं रोक  पाया। ऐसी कोई  जानकारी नहीं है कि किसी ने चुनाव आयोग या स्थानीय निर्वाचन अधिकारी के समक्ष इस बारे में कोई  शिकायत  या आपत्ति की  हो। सालों साल से यह 'हाथ' चुनाव आयोग के  कानून को  इसी 'हाथ' से ठेंगा दिखा रहा है। किसी  ने कोई आपत्ति नहीं की  तो भविष्य में भी दिखाता ही रहेगा।

Wednesday, November 13, 2013

चुटकी

यहां तो
पहले से हैं
33 करोड़
भगवान,
सचिन को
 कहां
स्थापित करें
श्रीमान. 

Tuesday, November 12, 2013

कामिनी के बढ़ते समर्थन से जांदू खेमे की मुस्कान बढ़ी


श्रीगंगानगर-जैसे जैसे जमींदारा पार्टी प्रत्याशी  कामिनी जिंदल के प्रति मतदाताओं का झुकाव बढ़ा है  वैसे वैसे कांग्रेस प्रत्याशी जगदीश जांदू खेमे की मुस्कान बढ़ रही है.ये राजनीति है . इधर ऐसा भी होता है. कोई अचरज की बात नहीं है.कभी कभी किसी प्रत्याशी को मिले वोट से वह खुद जीते ना जीते   लेकिन दूसरा,तीसरा जीत जाता है.ये कोई नई  बात नहीं है.इसके बावजूद चुनाव  पर पैनी नजर रखने वाले जगदीश जांदू को बहुत कमजोर उम्मीदवार क्यों मान रहें हैं,पता नहीं. या तो उनके पास आंकड़ों का विश्लेषण नहीं है या फिर वे सेठ जी के प्रभाव में आकर सही आंकलन कर नहीं पा रहे. उसका नाम जगदीश जांदू है. जो अब कांग्रेस का उम्मीदवार भी है. उस कांग्रेस का जिसका अपना एक वोट बैंक होता है. उस कांग्रेस का जिसने 2003 के चुनाव में अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार झेल कर भी 31.87 प्रतिशत  वोट लिए थे. तब कांग्रेस का प्रत्याशी 35922 वोट से हारा था. उस कांग्रेस का जिसे दमदार  त्रिकोणीय मुकाबले में जीत मिलती है. श्रीगंगानगर सीट पर गैर कांग्रेस वोटों की संख्या कांग्रेस के वोटों से अधिक है. चूँकि वे किसी एक पार्टी से सबंधित नहीं है इसलिए जब जब इन वोटो का विभाजन हुआ कांग्रेस उम्मीदवार ने विजय प्राप्त की. गत कई चुनावों का विश्लेषण किया जाए तो यह तस्वीर साफ़ हो जाएगी. 2008 के चुनाव में कांग्रेस को 30 . 85 प्रतिशत और बीजेपी को 41 .05 प्रतिशत वोट मिले थे. बाकी 20 .59 प्रतिशत वोट मनिंदर सिंह मान और बीएसपी प्रत्याशी में बटें. बाकी गजेन्द्र भाटी और अन्य में. 1998 के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबला हुआ 94 . 91   प्रतिशत वोट तीन उम्मीदवारों में बटें. कांग्रेस 42 . 05 प्रतिशत वोट लेकर चुनाव जीत गई. 1993 में 96 .74 प्रतिशत वोट तीन उम्मीदवारों में विभाजित हुए. कांग्रेस उम्मीदवार 36 03 प्रतिशत वोट लेकर विजयी हो गया. 1990 के चुनाव में 94 . 80 प्रतिशत वोटों का बटवांरा दो उम्मीदवारों में हुआ. कांग्रेस 44 . 62 प्रतिशत वोट लेकर भी हार गई. ऐसा ही होता है इधर श्रीगंगानगर में. अब इस चुनाव में भी कामिनी जिंदल ने मुकाबला त्रिकोणीय बना कर 25 प्रतिशत से अधिक वोट लिए तो फिर  कांग्रेस के जगदीश जांदू की जीत को कौन रोकेगा! उसके बाद इस सीट पर बीजेपी भी जाट नेता को ही टिकट देगी.सामान्य वर्ग का किस्सा समाप्त.  अगर कामिनी ने यह चुनाव जीत कर इतिहास बदल दिया तो फिर जाट नेता को उम्मीदवार बनाने से  पहले  पार्टियां कई बार सोचेंगी. लेकिन ऐसा होता लगता नहीं. क्योंकि कामिनी के साथ लगे लोग भी मानते हैं कि कामिनी जीत तो नहीं सकती लेकिन वह टक्कर में है. टक्कर में तो 1993 और 1998 में निर्दलीय सुरेन्द्र सिंह राठौड़ भी रहे थे और बीजेपी के दिग्गज भैरों सिंह शेखावत भी. क्या हुआ! इनसे अधिक टक्कर में कोई रहा भी है श्रीगंगानगर के चुनाव में. अब कामिनी जिंदल इन दोनों नेताओं से अधिक बड़ी टक्कर दे तो फिर कोई बात बने. लेकिन जिन नेताओं के हाथ में उनकी कमान है वे राठौड़ और शेखावत से बड़ी टक्कर दे पाएंगे यह समय बतायेगा. दो लाइन पढ़ो-मेरे सपनों में आना हर रोज सताना,इक बार हम चले आए तो बुरा मान गए.

Tuesday, November 5, 2013

अपने बूते चुनाव जीतने का गुरु मन्त्र दिया या नहीं


श्रीगंगानगर-गुरु गर्व से फूला नहीं समाता जब उसका शिष्य उससे आगे बढ़ता है. गुरु का सीना अपने शिष्य की उपलब्धि सुनकर चौड़ा हो जाता है. शिष्य से पराजित होकर भी गुरु अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है. परन्तु ये रामायण-महाभारत काल की बात हैं. जब शिष्य गुरु की आज्ञा  से दिन की शुरुआत किया करते थे. शयन के लिए भी  अनुमति लेकर जाते. काश! राधेश्याम गंगानगर और जगदीश जांदू उस समय हुए होते. हुए  भी  होंगे तो हमको क्या पता. यह वर्त्तमान है,जो ना तो भूतकाल होता है  ना भविष्यकाल होने की क्षमता इसमें होती है. आज तो राधेश्याम गंगानगर उस घड़ी को कोस रहे होंगे जब उन्होंने सीधे साधे जगदीश जांदू को अंगुली पकड़ कर राजनीति के पथ पर चलना सिखाया था. 1999 में बाऊ जी ही थे कांग्रेस के सर्वे सर्वा. बाऊ जी ने ही जांदू को मास्टर भगवान दास के वार्ड से टिकट दी. भगवान दास घर घर भागे दौड़े. जांदू जी जीत गए. चेयरमेन के दो दावेदार थे. एक बाउ जी के शिष्य परम आदरणीय,प्रातः स्मरणीय जगदीश जांदू दूसरे किशन मील. बाऊ जी का आशीर्वाद शिष्य के साथ था. जांदू जी चेयरमेन बन गए. हालाँकि तब अनेक लोगों ने बाऊ जी को इशारा किया था कि ऐसा मत करो. जांदू को आगे मत बढ़ाओ. लेकिन बाऊ जी जांदू जी के सीधे पन पर फ़िदा थे. किसकी सुनते!जगदीश जांदू ने भी बड़ी श्रद्धा,विश्वास और निष्ठां से शिष्यत्व का निर्वहन किया. सुनह-शाम हाजिरी में जाना.गुरु की हर जरुरत पूरी करना उनका धर्म हो गया था. बाऊ जी धन्य और गदगद, ऐसा शिष्य पाकर. कितना मान करता था. कितना सम्मान देता था. [ सम्मान है सामान नहीं,कृपया गौर करें] घर जगमग करने लगा जांदू के शिष्यत्व से. अविश्वास प्रस्ताव आया.  तब भी बाऊ जी से कहा गया कि इस शिष्य से छुटकारा  पा लो. उसकी नजर आपकी गद्दी पर है. ना जी! बाऊ  जी पर तो शिष्य द्वारा दिया जा रहा सम्मान सर चढ़ कर बोल रहा था.फिर उसका साथ दे गुरुत्व की रक्षा की. समय किसके रोके रुकता है. बाऊ जी को बीजेपी में जाना पड़ा. इसके बावजूद गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में कोई बदलाव नहीं आया. कलयुग में तो बाप बेटे के रिश्ते भी रिसने लगते हैं लेकिन क्या मजाल कि  गुरु-शिष्य बदले हों. शिष्य ने 2008 के विधानसभा चुनाव में खूब गुरु दक्षिणा दी. दिल खोलकर गुरु का नाम जपा. सबको पता था. भारतीय संस्कृति में शिष्य धर्म निभाने से कौन रोकता! गुरु की भक्ति  में शिष्य ऐसा बावरा हुआ कि अपनी पार्टी तक की परवाह नहीं की. गुरु को गद्दी मिल गई. 2009 में सभापति चुनाव आया. गुरु ने शिष्य को फिर आशीर्वाद दिया. तब भी बाऊ जी को समझाया गया. मत करो ऐसा. बाऊ जी का हाथ पकड़ा गया लेकिन गुरु तो शिष्य की श्रद्धा से अभीभूत था. पर हाय  रे! शिष्य प्रेम! बाऊ जी ने किसी की एक ना सुनी.  शिष्य जीत गया. इसी जीत ने शिष्य को गुरु के सामने ला खड़ा किया. बाऊ जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके चरणों में बैठने वाला शिष्य जांदू ही उनको ललकारेगा. गद्दी छीनने की कोशिश करेगा. शिष्य जांदू की नजर तो गुरु की गद्दी से कभी हटी ही नहीं.शिष्य के सारे कर्म केवल और केवल इसी गद्दी के लिए रहे हैं. अब देखना ये कि गुरु ने अपने शिष्य को अपने बूते चुनाव जीतने का गुरुमंत्र भी दिया है या नहीं. 

Saturday, November 2, 2013

पैसा और पद
दो को जानते हैं,
रिश्ते किसी
और को
कहां जानते हैं.

लो हो गया
इश्क का हिसाब,
मैं मेरे राजी
तू तेरे  जनाब .

Saturday, October 19, 2013

कई बातें भी विदा हो रहीं है बुजुर्गों के साथ

श्रीगंगानगर-भाभी जी को पूजा की डलिया लेकर सीधी गली से आते देखा. रुक गया. पास  आए तो पूछ लिया,आज इधर किधर से? आज कार्तिक शुरू हो गया ना,इसलिए दुर्गा मंदिर में गई थी. क्योंकि भवन में [गली के छोटे मंदिर] पथवारी नहीं है सींचने के लिए,भाभी ने बताया.  भाभी  रोज गली के मंदिर में  ही जाया करती थी. आज दूसरे मंदिर में गई थी. बात तो मामूली थी. लेकिन मां की स्मृतियां दिलो दिमाग  में चली आईं. पीछे लौट गया अपने आप. मां होती तो दो तीन दिन पहले ही पता लग जाना था कि कार्तिक शुरू होने वाला है. हालांकि अपने लिए तो सब एक से ही हैं. लेकिन मां के लिए कार्तिक का बहुत महत्व था. सुबह जल्दी उठाना. ठन्डे पानी से स्नान कर अँधेरे ही घर से मंदिर चले जाना.यह ध्यान रखते हुए कि दरवाजा खुलने बंद होने से कोई आवाज न हो ताकि किसी की नींद में खलल ना पड़े. बस, जाते हुए यह बोलना, मैं जा रहीं हूं. एक कार्तिक ही क्यों मां के रहते हर छोटा बड़ा त्यौहार,वार, अच्छा,बुरा ग्रह नक्षत्र सब कुछ मालूम हो जाता था. कल फलां दिन है सेव मत करना. परसों ये दिन है इसलिए वो नहीं करना. आज ही कर लो. बहु,बेटी को भी बता देना कि इस सप्ताह में क्या बार त्यौहार आने है. छोटे से लेकर बड़े सब को ज्ञात हो जाता था. वैसे भी उनके काम से संकेत मिल जाते थे. कभी कोई धागा रंगते हुए. कभी किसी  कागज पर कोई आकृति उकेरते हुए. कभी किसी लाल-पीले कपड़े की तह जमाते समय. किसी आले में कोई दीपक जलना. बाहर देहरी पर पानी डालना. लेकिन अब वो बात कहाँ! बुजुर्गों के साथ ही ये सब विदा हो रहा है. अच्छे,बुरे वार,घडी,नक्षत्र  कितनी ही ऐसी परम्पराएं उनके साथ चली गईं. जो सदियों तक बुजुर्गों से अगली पीढ़ी तक पहुंचती रहीं हैं. बच्चे के जन्म से लेकर उसकी  शादी तक की सभी रस्में. नवजात बच्चे की छोटी छोटी बिमारियों को दूर करने के आसान नुस्खे.बच्चे के अधिक रोने का टोटका तो उसकी नजर उतारने का टोना. सब के सब घरों से गायब हो गए.  अगर कहीं किन्ही परिवारों में ये सब हैं तो वे बहुत अमीर हैं.लेकिन उनको भी विदा होना है. क्योंकि आज की पीढ़ी को मतलब ही नहीं इन सब बातों से. वे आधुनिक हो चुके हैं. उनको ये सब नहीं भाता, लेकिन मज़बूरी तब सामने आती है जब कोई बार,त्यौहार घर में आता है. कोई सामाजिक प्रोग्राम करना होता है. तब याद आती है मां जी की. फिर ननद,बड़ी से बड़ी जेठानी,खानदान की बुजुर्ग महिला से पूछेंगे?जी,ये कैसे होगा? कैसे करते हैं अपने घर में?बात केवल कार्तिक की नहीं. असल में तो आजकल बहु,बेटी,युवा दादा,दादी,नाना,नानी के पास बैठना तक पसंद नहीं करते. जबकि उनके पास सुबह से रात तक और जागने से लेकर सोने तक की बहुत सी काम की बात हैं. किस बार,त्यौहार पर क्या क्यों किया जाता है,उसका जवाब है. बहुत से घरों में बहु बेटियों ने अपने बुजुर्गों से पूछ कर लिख लिया सब कुछ. ताकि एक पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी तक पहुंचे. बेशक जमाना कितना भी आधुनिक हो गया हो लेकिन आज भी घरों में हर प्रकार की सामाजिक रस्मों रिवाज निभाई जातीं हैं. बस फर्क इतना है कि आज इधर उधर से पूछ कर,इन्टरनेट पर तलाश कर यह सब किया जाता है. बुजुर्गों के रहते तो पूछना ही नहीं पड़ता था. सब अपने आप हो जाता. अब बुजुर्गों की संख्या कम हो रही हैं. जो अब बुजुर्ग होंगे उनको गूगल,फेसबुक,ट्विटर के बारे में तो बहुत ज्ञान होगा लेकिन उन बातों का नहीं जो हमें जड़ों से जोड़े रखती थी किसी ना किसी बार त्यौहार  के बहाने. परिवार को इकठ्ठा कर लिया करती थी कभी किसी बहाने तो कभी किसी बहाने. हम बहुत दूर आ गए. बुजुर्गों से भी और अपनी परम्पराओं से भी. 

Friday, September 27, 2013

अजी! कुछ भी दिलाओ, परंतु सलीका तो सिखाओ


श्रीगंगानगर।  बेशक अपने लाडले-लाडलियों को महंगी बाइक और कार दिलवाओ, लेकिन इसके साथ-साथ उनको सडक़ पर चलने-चलाने का सलीका भी सिखाया जाना जरूरी है। जिनको ना तो रेड लाइट की परवाह है, न ड्यूटी पर खड़े कांस्टेबल का डर। उम्र के खुमार में उनको अपनी जि़न्दगी की फिक्र तो होने का सवाल ही नहीं। उन माता-पिता का भी ख्याल उनको नहीं है, जिन्होंने कितने लाड से उनको पाला है। कितने सपने वो अपने इन लडक़े-लड़कियों में देख रहे हैं। इनके सपने पूरे हों, ये समाज में प्रतिष्ठित होकर स्थापित हों, इनका अपना घर-संसार हो, इसके लिए अपनी क्षमता से, कभी-कभी तो क्षमता से आगे जाकर उनकी लगभग हर डिमांड पूरी करते हैं। ऐसे बच्चों को जब अपने परिवार की चिन्ता नहीं तो दूसरों की होने का प्रश्न ही कहां पैदा होता है। चाहे बाइक, कार खरीदने के नियम हों न हों लेकिन इनको सडक़ पर चलाने के नियम-कायदे जरूर होते हैं। कुछ सरकार के बनाये हुए और कुछ शहर की व्यवस्थाओं के अनुरूप अलिखित, अघोषित। जैसे ऑटोमेटिक लाइट्स सिग्नल, चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक सिपाही, जेब्रा कॉसिंग आदि-आदि। ये सब इसलिए ताकि वाहन चालक खुद भी सुरक्षित रहें और दूसरों को भी उनकी लापरवाही, मस्ती से वाहन चलाने की आदत से नुकसान न हो। परंतु अफसोस शहर के हर बड़े-छोटे चौराहे पर, हर वक्त यही हो रहा है। ऐसे लोग रेड लाइट होने के बावजूद तेजी से निकलते हैं, जिससे बड़ी दुर्घटना की आशंका रहती है। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे वाहन चालकों को रोकने की जिम्मेदारी ट्रैफिक पुलिस की है। मगर वाहन चालकों की भी तो होती है कोई जिम्मेदारी, कोई कत्र्तव्य। उनको रेड लाइट पर रुकना चाहिए, जब कांस्टेबल रोकेगा तो न केवल उन्हें बल्कि उनके परिजनों को भी टेंशन हो जायेगी। हद है ऐसे लोगों की भी जिनको यह नहीं पता कि किस साइड में जाने के लिए सडक़ पर कहां चलना चाहिए। जहां मर्जी हो उधर वाहन चलाते हैं और फिर अचानक से इधर-उधर मुड़ जाते हैं।  जिससे उनका खुद का जीवन तो संकट में पड़ता ही है, दूसरों को भी परेशानी होती है। दुर्घटना की आशंका बन जाती है। इनको कम से कम इतना तो पता होना ही चाहिए कि बाईं ओर मुडऩे के लिए अपने वाहन को सडक़ के बाईं ओर और दाईं ओर मुडऩे के लिए दाईं ओर रखना पड़ता है। सीधे चलने वाले को अपना वाहन बीच में रखना चाहिए। ऐसा होता नहीं है, क्योंकि यह सब न तो माता-पिता बताते हैं और न ही वे स्कूल-कॉलेज जिनमें ये पढ़ते हैं। सडक़ों पर दिनोदिन भीड़ लगातार बढ़ेगी, बेहतर है हम सब सडक़ पर चलने का सलीका तो कम से सीख ही लें, ताकि हम भी सकुशल रहें और दूसरे भी। साथ में जिंदा रहें हमारे परिवार के सपने।

Sunday, September 22, 2013

सच छोड़ ,झूठ को अपना,आगे बढ़,ज़िंदगी बना

  श्रीगंगानगर-सबका प्रिय बन। सच मत बोल।  झूठ को अपना।  उसी का हाथ पकड़। उसी के साथ चल। आगे बढ़।  जिसके पास साम,दाम,दंड,भेद हैं उससे डरना सीख।  उनकी चरण वंदना कर।  उनकी चरण रज अपने माथे पर लगा धन्य हो।  नित उठ उनके दर्शन का लाभ प्राप्त कर।  सच की जीत वाली बात किताबों में ही है।  सच नामक प्राणी की जीत पता नहीं कब होगी?झूठ हर पल जीत कर सच को अंगूठा दिखाता है। सच को खुद को प्रमाणित करना पड़ेगा। झूठ को प्रमाण की कोई जरूरत ही नहीं होती। इसलिए,हे बंधु! ये नया ज्ञान अपने दिमाग में रख। तरक्की कर। मौज मार। यही जीवन है। इसी में जिंदगी है। आनद है। उमंग है। जीवन का सार है। बाकी सब तो बेकार है। ये है तो भाव है, पैसा है, साधन है। तो आगे बढ़। सेठ,दानवीर बी डी अग्रवाल की बात पर गौर कर, जो ये कहते हैं कि उनके पिता भगत सिंह के साथ थे। यह कितने गौरव की बात है श्रीगंगानगर की इस धरा के लिए। अहा! हम भगत सिंह जैसे अद्वितीय क्रांतिवीर के साथी के दर्शन कर सके। लाला लाजपत राय के साथ जेल में रहे व्यक्ति के निकट रह सके। [उनके हवाले से प्रकाशित एक आलेख में यह जिक्र है कि साइमन कमीशन जब भारत आया [1928] तब लाला लाजपत राय के साथ उनको भी गिरफ्तार कर लिया गया था। वे भी 52 दिन जेल में रहे थे।] वैसे हमने तो अब तक यही पढ़ा था कि लाला जी लाठियों  के वार से घायल हुए जिस कारण उनका निधन हो गया था। हमने गलत पढ़ा होगा। क्योंकि सेठ जी की बात को झूठ कहने का कोई प्रश्न ही नहीं है। कैसे अज्ञानी है इतिहासकार जिन्होने इस बालक की देश भक्ति का कहीं जिक्र ही नहीं किया। जो आज सेठ मेघराज जिंदल के नाम से पूरे क्षेत्र में जाना पहचाना जाता है। इतिहास लिखवाने वाले भी कितनी भूल कर बैठे! इस सवाल को दिल से निकाल की 1928 में मेघराज जिंदल की उम्र क्या रही होगी! महान व्यक्तियों के किसी काम पर बारे में शंका नहीं करनी चाहिए। जो कहा जा रहा है उसे ब्रह्म वाक्य मान। गीता और रामायण समझ। उम्र को मत देख। भावना को देख। उसको प्रणाम कर। अपने बच्चों को उनके बारे में बता। जीवन को सफल बना। जैसे बाकी सब बना रहे हैं। हां में हां मिला रहे हैं। वैसे लाला भोला राम के सबसे बड़े बेटे अगर आज जिंदा होते तो उनकी उम्र लगभग सौ साल होती। चलो बड़े घर की बात है दस साल बढ़ा देते हैं। सेठ मेघराज जी 6 भाई बहिन में सबसे छोटे हैं। इसका मतलब जब वे लाला लाजपत राय के साथ गिरफ्तार हुए तब वे किशोर थे। कितनी बड़ी बात है। एक किशोर का 52 दिन तक जेल में रहना। 

Sunday, September 1, 2013

पर्दे के पीछे कुछ ना कुछ तो जरूर है


श्रीगंगानगर-आइये, सरकारी हॉस्पिटल में चलें जहां मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास होने वाला है। मंच पर मौजूद हैं प्रदेश कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। उनके अगल-बगल में हैं राष्ट्रीय जमींदारा पार्टी के अध्यक्ष बी डी अग्रवाल विद फैमिली। मतलब कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रही उनकी पत्नी बिमला अग्रवाल,बेटी कामिनी जिंदल। जिले के कांग्रेस नेता बैठे हैं इनके पीछे। क्यों? बात कुछ हजम नहीं हुई। अशोक गहलोत कॉलेज का शिलान्यास करने आए तो मंच पर यही दृश्य बनता है। इसके अलावा और कोई दृश्य हो ही कैसे सकता है। बी डी अग्रवाल दौ सौ करोड़ रुपए से अधिक देंगे तो उसकी खनक ना सुनाई दे ये कैसे संभव है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार फिर लाने के ख्वाब देख रहे अशोक गहलोत का बी डी अग्रवाल से मिलना राजनीतिक विश्लेषकों को अचरज में डाल रहा है। उस बी डी अग्रवाल से जिसने  कांग्रेस के खिलाफ अपनी पत्नी और बेटी को चुनाव लड़वाने की तैयारी कर रखी है। चुनाव प्रचार शुरू है। यह कोई साधारण बात नहीं है। कहीं ना कहीं ऐसा कुछ जरूर है जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ है या छिपाया जा रहा है। कुछ ना कुछ तो है जिस पर पर्दा है। क्योंकि मंच पर ऐसा होता नहीं कि विरोधी राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष दूसरी पार्टी के सीएम को खुद के पैसे शुरू होने वाले प्रोजेक्ट के लिए आमंत्रित करे। ये तो संभव है कि कोई सामाजिक संस्था सभी राजनीतिक लोगों को किसी मंच पर एक साथ बैठा दे। परंतु ये होना मुश्किल है कि जो हो रहा है या होने वाला है। सच में यह हो गया तो फिर कलुषित होती राजनीति में एक नई शुरूआत होगी। इसके साथ ही कांग्रेस के कई स्थानीय नेताओं के हाशिये पर जाने का संकट शुरू हो जाएगा। जब सीएम गहलोत शिलान्यास समारोह में बी डी अग्रवाल की तारीफ करेंगे, जो कि उनको करनी ही पड़ेगी, तो फिर उनका क्या होगा जो यहां से कांग्रेस की टिकट मांग रहे हैं। इस कहानी में कहीं न कहीं कोई पेच जरूर है। कोई छिपा हुआ एजेंडा अवश्य है। जो दस सितंबर से पहले या उसी दिन सामने जरूर आएगा। चाहे वह शिलान्यास कार्यक्रम स्थगित होने के रूप में या बी डी अग्रवाल के कांग्रेस मंच पर आने के रूप में। ये नहीं हुआ तो समझो प्रदेश में राजनीति के नए युग की शुरुआत हो गई। बी डी अग्रवाल के बाद डॉ करोड़ी लाल मीणा भी मुख्यमंत्री से मिलने जाएंगे उनको किसी कार्यक्रम में बुलाने के लिए। संभव है वसुंधरा राजे सिंधिया भी इसी बी डी अग्रवाल और डॉ मीणा के पद चिन्हों पर चल पड़े। कितना सुखद होगा यह सब देखना। दो  लाइन पढ़ो.... जेब भारी हो तो जमाना साथ आता है, खाली जेब को अब कौन बुलाता है।

Wednesday, August 28, 2013

सुदामा होने का वर दे

कृष्णा
इतना काम कर दे,
मुझे
सुदामा होने का वर दे।
बन के
फिर से बहुत ही दीन,
हो जाऊँ
तेरी ही भक्ति में लीन।
सुदामा
पैदल तेरे पास आए,
और तू
मुझे फिर गले लगाए।
गले लग
सुदामा परम सुख पाए
द्वारिकाधीश
कलयुग में मित्र धर्म निभाए।
बस  और                                     
तू इतना सा करना
मुझको

खुद से दूर ना करना 

Tuesday, August 13, 2013

अपनी दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं

श्रीगंगानगर-इंटरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया। एक डिब्बे में समेट दिया। सब कुछ कितना पास है हमारे। जिस से चाहो बात करो। जो चाहे प्रश्न पूछो। आपके प्रश्न समाप्त हो जाएंगे,यहा बताना बंद  नहीं करेगा। बेशक दुनिया के नजदीक आए हैं हम सब। लेकिन पड़ौसी से कितने दूर हो गए यह किसी ने नहीं सोचा। जिसका रिश्तों में सबसे अधिक महत्व था। जो सबसे निकट था।  वह बहुत दूर हो गया और हमें  पता भी नहीं चला। दुनिया के बड़े से बड़े व्यक्ति के फोन नंबर हमारे मोबाइल फोन  में होंगे।परंतु पड़ौसी के शायद ही हों। वो भी जमाना था जब पड़ौसी से एक कटोरी चीनी,एक चम्मच चाय पत्ती मांगना सामान्य बात थी। सब्जी का आदान प्रदान तो बड़ी आत्मीयता से होता था। जा मोनु सरसों का साग रश्मि की माँ को दे आ उसे बड़ा चाव है  सरसों के साग का। उधर से भी ऐसे ही भाव थे। कोई तड़के वाली दाल दे जाता तो कोई बाजरे की रोटी ले जाता। पड़ौसी भी रिश्ते की अनदेखी डोर से बंधे होते। चाची,मामी,ताई,दादी,नानी,भाभी,बुआ कौनसा रिश्ता था जो नहीं होता। अपने आप बन जाते ये रिश्ते। सात्विक प्रेम,अपनेपन से निभाए भी जाते थे ये रिश्ते। घर की बहिन,बेटी,बहू छत पर कपड़े सुखाने के समय ही पड़ौस की बहिन,बेटी,बहू खूब बात करतीं। बड़ी,पापड़,सेंवी बनाने के लिए बुला लेते एक दूसरे को। छत से ही एक दूसरे के आना जाना हो जाता। अब तो दो घरों के बीच दीवारें इतनी ऊंची हो गई कि दूसरे की छत पर क्या हो रहा है पता ही नहीं लगता। ऊंची एड़ी करके कोई देखने की कोशिश भी करे तो हँगामा तय है। ये कोई अधिक पुरानी बात नहीं जब घरों के बाहर चार दीवारी का रिवाज नहीं था। किसी भी स्थान पर एक खाट बिछी होती और फुरसत में मोहल्ले की औरतें की महफिल शुरू हो जाती। सर्दी में एक घर की धूप सबकी धूप थी। सूरज के छिपने तक जमघट। अब तो सबकी अपनी अपनी धूप छांव हो चुकी है। ना तो कोई किसी के जाता है नो कोई पसंद करे कि कोई आकर प्राइवेसी भंग करे। अब तो घर घर में सबके अलग अलग कमरे हैं। काम किया,चल कमरे में। सभी के  अपने नाटक टीवी पर।  सब के सब सिमटे हैं अपने आप में। समय ही नहीं है एक साथ बैठने का। बात करने का। चर्चा कर चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का। मुखड़ा बताता है कई  झंझट है दिमाग में। तनाव है दिल में। परंतु रिश्ते तो रह गए केवल नाम के इसलिए दिल की बात कहें किस से और किस जुबान से। सच में नए जमाने ने दुनिया छोटी कर दी लेकिन उस दुनिया में इंसान दिनों दिन अकेला होता जा रहा है। इस दुनिया में खुद के अलावा किसी और के लिए ना तो कोई स्थान है और ना अपनापन। कितनी दूर आ गए हम अपने आप से।

Wednesday, August 7, 2013

नेताओं की सुरक्षा हटा लेनी चाहिए सुरक्षा बलों को

श्रीगंगानगर-कोई भूमिका नहीं,बस आज सीधे सीधे यही कहना है कि जिन नेताओं के हाथ में देश सुरक्षित नहीं है,देश की रक्षा करने वाले जवान सुरक्षित नहीं है उनको सुरक्षा देने का कोई औचित्य नहीं। उनकी सुरक्षा क्यों करें सुरक्षा बल। उन्हे सुरक्षा किस लिए! इसलिए ताकि सुरक्षा बालों का हौसला गिरे या फिर इसलिए ताकि उनके राज में दुश्मन देश जब जो चाहे हरकत कर मेरे महान भारत और भारतियों की खिल्ली उड़ाता रहे! उनकी सुरक्षा में डटे सभी जवानों,अधिकारियों को हट जाना चाहिए। खुला छोड़ देना चाहिए ऐसे नेताओं को ताकि जनता उनको पत्थरों से नहीं तो अपनी तीखी नजरों से मार दे। इस देश का भाग्य देखो कि सुरक्षा बल उन नेताओं की सुरक्षा कर रहें हैं जिनको भारत की आन,बान,शान की कोई चिंता नहीं। सुरक्षा बल उनकी चौकसी करने को मजबूर हैं जो ना तो सीमाओं की रक्षा कर पा रहें हैं और ना सीमाओं की रक्षा करने वालों की। जब ये नेता किसी काम के नहीं तो फिर इनको सुरक्षा किस बात की! कूड़े कचरे की सुरक्षा करने की जरूरत ही क्या है! पाक जब चाहे हमारी सीमा में आकर जवानों को मार देता है। उनके सिर काट कर साथ ले  जाता है। और हमारे भांत भांत के नेता  अपने  सिरों पर सत्ता का ताज लिए बस खाली शब्द बाण छोड़ देते हैं। ये शब्द बाण पाक का तो कुछ नहीं बिगाड़ते हाँ अपने देश की जनता की छाती भेद कर दिल में उतर जाते हैं। वह रोती है...चीखती है....आक्रोशित होती है.....परंतु नेता राजनीति का खेल खेलते रहते हैं। सत्ता पाने या आई हुई सत्ता को बचाने के जुगाड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं करते ये नेता । कैसी लाचारी है इस देश की। कैसी बेबस है इस देश की जनता। आज पूरा देश गुस्से में है....बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक की आँखों में एक ही सवाल कि ये हो क्या रहा है! कब तक,आखिर कब तक पाक इस प्रकार से हमारे सैनिकों को मार हमारे गौरव को  ललकारता रहेगा! देश का हर नागरिक जानता है कि आर्थिक,सामाजिक,धार्मिक,राजनीतिक,कूटनीतिक मोर्चे पर सब कुछ तहस नहस हो चुका है। इसके बावजूद ये नेता अपनी सत्ता लोभी हरकतों से बाज नहीं आते। ये ठीक है कि जवाबी कार्यवाही करने से पहले कूटनीति,राजनीति,विदेश नीति के बारे में बहुत कुछ देखना और सोचना पड़ता है। लेकिन इसका ये अर्थ तो नहीं कि कोई आपके देश पर हमला करे.....एक बार ...दो बार...बार बार.....इसके बावजूद आप कोई जवाब ना दें। केवल इन नीतियों के भरोसे तो देश की सुरक्षा नहीं हो सकती। इनके कारण देश को दुश्मनों के हाथ तो नहीं सौंपा जा सकता। अगर इन नीतियों में घुटने टेकना लिखा है इनको बदल दिया जाना चाहिए। जब तक देश को भरोसा नहीं हो जाता कि ये नेता कुछ करेंगे तब तक इनको राम भरोसे छोड़ देना चाहिए। 

ये कांग्रेस भी मस्त पार्टी है एक जवान की तरह



श्रीगंगानगर-सालों पहले हिन्दी की रीडर डाइजेस्ट पुस्तक में एक किस्सा पढ़ा। पहले वो,उसकेबाद असल बात। सेना का जनरल बार्डर पर गया। एक जवान से उसकी बात हुई। जनरल ने पूछा,ये पूर्व में मोर्चा क्यों? सर,सूबेदार के आदेश पर,जवान ने बताया। पश्चिम में मोर्चा किसलिए,जनरल का प्रश्न था। मेजर के निर्देश पर,जवान का जवाब था। फिर ये उत्तर में किस वजह से,जनरल ने सवाल किया। जवान ने उत्तर दिया
सर,कर्नल का हुकम था। अरे तो ये दक्षिण  में क्यों बना रखा है मोर्चा? जनरल ने झुंझला कर पूछा। जवान ने बताया सर,बड़े साहब ने कहा था। जनरल को गुस्सा आया,बोले जब हमला करने की जरूरत होगी तो कौनसा मोर्चा काम में लोगे? इनमें से कोई नहीं। मौके की नजाकत के हिसाब से हमला होता है। वही  मैं करूंगा,जवान ने शांत मन से उत्तर दिया। तो जनाब,आप इस जवान को कांग्रेस हाई कमान समझ सकते हैं और जनरल को कांग्रेस कार्यकर्ता या वह आदमी जिसकी राजनीति में रुचि है। विभिन्न दिशाओं के जो  मोर्चे हैं उनको कांग्रेस की ब्लॉक कमेटी,जिला कमेटी,प्रदेश कमेटी और चुनाव कमेटी मान लो तो ठीक रहेगा। कांग्रेस हाई कमान उस जवान की तरह किसी को नाराज नहीं करता। सबको मान देता है। इसलिए छोटी बड़ी सभी कमेटी ले रहीं हैं टिकट के  आवेदन। देने वाला भी खुश और लेने वाला भी। इतनी कमेटियाँ इतने दावेदार लेते रहो आवेदन। एकत्रित करते रहो हर बंदे का बायोडाटा। बनाते रहो पैनल- शैनल। ये पैनल-शैनल तैयार करने वाले भी जानते हैं कि उनकी सिफ़ारिश कितना दम रखती है। आवेदन करने वाला भी इस सच्चाई को पहचानता है कि टिकट के मामले में इन पैनलों की कितनी अहमियत है। मगर सब के सब शामिल हैं टिकट वितरण के इस पारदर्शी नाटक में। सब शानदार अभिनय भी कर रहे हैं। ताकि किसी को कोई शक ना हो....जन जन का विश्वास बना रहे। कार्यकर्ता को लगे कि टिकट यहीं से तय होगा। चलो मोर्चे पर चलें....अगर जवान उन मोर्चे के हिसाब से युद्ध के दौरान जवाबी हमला करेगा तो वह कनफ्यूज हो जाएगा....किस को काम में ले किस को ना ले। इसलिए वह खुद निर्णय लेता है। यही कांग्रेस हाई कमान करता है। सबसे पैनल लेता है। लाओ भई, तुम भी लाओ और तुम भी बनाओ। सुनो सबकी करो मन की। किसकी हिम्मत है जो पूछ सके के हमारे पैनल पर क्या चर्चा हुई? कौन सवाल जवाब करेगा हाईकमान से कि हमारे पैनल से क्या निष्कर्ष निकला? कुछ  भी नहीं। अलग अलग कमेटी के पैनल जाएंगे तो स्वाभाविक है नाम भी अलग अलग होंगे। एक तो हो नहीं सकता....क्योंकि सबके अपने अपने उम्मीदवार हैं और सबके अलग अलग गुट। एक नाम  जाए तो फिर हाईकमान को इतनी मगज़मारी करने की जरूरत ही ना पड़े।  उसकी मजबूरी है उस जवान की तरह जो कई मोर्चे तैयार करता है। और युद्ध के समय जैसे  जवान खुद फैसला करता है ऐसे ही कांग्रेस हाईकमान वक्त पर फैसला लेता है कि टिकट किसको देनी है। मोर्चे,मारचे,पैनल -शैनल पता ही नहीं लगते किधर गए। यही होता आया है। अब भी यही होगा। राजनीति और युद्ध में सब जायज है।

Friday, August 2, 2013

एसपी-कलक्टर हमारे सामने ठुमके लगाएंगे.......

श्रीगंगानगर-एक समय ऐसा आएगा जब टंकी पर चढ़े लोग कहेंगे कलक्टर-एसपी हमारे सामने ठुमके लगाएं तब हम नीचे उतरेंगे।यह बात बहुत ही सजह अंदाज में कल रात राजवंश गार्डन में एसपी संतोष चालके ने कही। अवसर था राजकीय सेवा से रिटायर हुए श्रीराम चौरडिया के विदाई समारोह का। एसपी संतोष चालके श्री चौरडिया के साथ अनौचारिक क्षणों में हुई बातचीत के अपने अनुभव साझा कर रहे थे....वे कहने लगे, चौरडिया जी लोगों के टंकी पर चढ़ने की बात पर कई बार मज़ाक में मुझसे कहते...एक दिन ऐसा आएगा एसपी साहब! जब टंकी पर चढ़े लोग ये कहेंगे कि हम तो तब नीचे आएंगे जब एसपी और कलक्टर यहां आकर ठुमके लगाएंगे। लेकिन अब ये तो जा रहे हैं। मैं अकेला क्या करूंगा। श्री चालके ने कहा कि युवा अधिकारियों को श्रीराम चौरडिया जैसे अधिकारियों से बहुत कुछ सीखना चाहिए। एसपी ने अपने स्टाइल में मुस्कराते हुए कई अनुभव बताए।  जिससे माहौल में मुस्कान बिखरती रही। श्री चौरडिया की जी भर के तारीफ करते हुए कहा कि वे फुर्सत के क्षणों में  बहुत ही ज़िंदादिल व्यक्ति हैं। श्रीराम चौरडिया ने अपने सम्बोधन में संतोष चालके को अपना छोटा भाई बताया। वे बोले,मैंने हमेशा इनको एसपी नहीं छोटा भाई समझ के बात की। उनका कहना था कि कई काम और करने थे जो नहीं कर पाया उसका अफसोस है।विधायक राधेश्याम गंगानगर,बीसूका के उपाध्यक्ष राजकुमार गौड़,सभापति जगदीश जांदू, चेयरमेन ज्योति कांडा,विधायकसंतोष सहारण,शंकर पन्नू,सीता राम मौर्य सहित कई राजनीतिक व्यक्तियों ने इशारों इशारों में श्री चौरडिया को कुर्ता पायजामा सिला लेने की सलाह दी। उनके अलावा कई और ने भी श्रीराम चौरडिया को राजनीति में आने को कहा। किसी ने तो हल्के फुल्के अंदाज में श्री चौरडिया को टिकट के लिए आवेदन करने की राय भी दे दी। जगदीश जांदू और संतोष सहारण ने तो साफ शब्दों में श्री चौरडिया को कांग्रेस पार्टी में आने का निमंत्रण देते हुए कहा, पार्टी में आयें आपका स्वागत है। श्रीराम चौरडिया के एक तरफ राधेश्याम गंगानगर और दूसरी तरफ संतोष सहारण थे। तीनों लगातार बात करके हँसते रहे। कार्यक्रम में जिले भर के अधिकारी मौजूद थे। कार्यक्रम में शामिल कर्मचारियों,अधिकारियों का कहना था कि ऐसा आनंद दायक,खुशनुमा  माहौल बहुत सालों के बाद देखने को मिला। [समारोह में शामिल व्यक्तियों से हुई बातचीत के आधार पर] 

Wednesday, July 31, 2013

हादसे के बाद भीड़ नहीं चिकित्सा जरूरी है

श्रीगंगानगर-अत्यधिक शोकाकुल कर देने वाला हादसा। पत्थर दिलों को पिघला देने वाली दुर्घटना। कई घंटे तक ना तो इस बात की पुख्ता जानकारी कि कितने बच्चे मरे  ना और ना इस बात की कि घायलों की संख्या कितनी है। हर कोई बदहवास। वह भी जिनके घरों में हादसे की खबर पहुंची और वे भी जो सिस्टम का हिस्सा हैं। हादसा ही ऐसा  था। सड़क से लेकर अस्पतालों तक खून बिखरा था। घरों में रुदन था। दीवारों को भेद देने वाला विलाप  था। शोक,पीड़ा,दर्द,संवेदना आंसू थे हर उस तरफ जहां तक इस दुर्घटना का संबंध था। कुछ  वहां भी जहां नहीं था। जिसको जब सूचना मिली दौड़ पड़ा। घटना स्थल पर। हस्तापल में। मेडिकल स्टाफ। पुलिस प्रशासन नेता। मीडिया। दोस्त-रिश्तेदार,परिवार। यह सब स्वाभाविक है पूरी तरह। अनेक का आना जरूरी है। उनको आना ही पड़ता है। कोई बुलाए या ना बुलाए। कुछ के आने की उम्मीद होती है। कुछ होते हैं तमाशबीन। इनमें सबसे जरूरी है मेडिकल स्टाफ। इनके अलावा जो भी होते हैं वे किसी ना किसी रूप में,कम या अधिक  चिकित्सा सेवा को प्रभावित करते हैं। क्योंकि उनको चिकित्सा क्षेत्र की जानकारी नहीं होती। मीडिया को खबर ब्रेक करनी है। हर क्षण की। हर एक क्षण को कैमरे में कैद करने की जल्दबाज़ी,भागदौड़। नेताओं को घायलों की कुशल क्षेम पूछनी है। मृतकों के परिजनों से संवेदना व्यक्त करनी है। यह सब इस प्रकार से हो ताकि मीडिया के कैमरों में आ सकें। प्रशासन को जरूरी इंतजाम करने होते हैं। यह सब सामान्य बात हैं। लेकिन उस समय बड़ी मुश्किल हो जाती है जब सब के सब घायलों के आस पास पहुँच जाते हैं।इमरजेंसी में भीड़ है और घायलों के बेड के निकट भी कई लोग खड़े हैं। कई बार तो चिकित्सा स्टाफ को अपना काम करने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जबकि ऐसे हादसों के बाद प्रारम्भिक घंटे ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। जो कितने ही घायलों की जाती ज़िंदगी को लौटा सकते हैं। सब लोग आएं....लेकिन व्यवस्था ऐसी हो कि हॉस्पिटल के उन हिस्सों से लोग दूर रहें जहां घायलों को लाया जा रहा हो। मेन गेट से....वार्ड से....इमरजेंसी से.....। जिससे चिकित्सा स्टाफ को भागदौड़ करने में कोई दिक्कत ना आवे। सब लोग ऐसे स्थान पर रहें जहां से वे आने जाने वालों को देख सके। जरूरत पड़ने पर चिकित्सा स्टाफ की मदद करने के लिए  जा सकें। जनप्रतिनिधि वहीं से प्रशासन की कार्य प्रणाली पर निगाह रख सकते हैं। अधिकारी से बात कर सकते हैं....उनसे जानकारी ले सकते हैं। किसी हादसे पर तो कोई बस नहीं लेकिन ऐसे दुखद,पीड़ादायक अवसरों पर थोड़ी सी व्यवस्था सभी घायलों की बहुत अधिक मदद कर सकते हैं। जब स्थिति नियंत्रण में आ जाए तो नेता,अधिकारी वार्ड में जाकर घायलों से मिलें। मीडिया मौके की जानकारी ले...फोटो खींचे...वीडियो करे। मगर ऐसा करे कौन..बात पहले मैं....पहले मैं की है। ईश्वर करे फिर कोई ऐसा हादसा ना हो। फिर भी कहते हैं कि अच्छे की कामना करो और बुरे के लिए तैयार रहो। आज बस इसके अलावा कोई बात नहीं। ना शेर और ना किसी के शब्द।