Wednesday, June 26, 2013

धर्म के आवरण से धार्मिक बन गए हम सब

श्रीगंगानगर-हिंदुस्तान में पाप  की कोई चिंता नहीं। रामायण के पाठ करो...पाप मुक्त। गंगा स्नान करो पापों से छुटकारा। तीर्थ यात्रा करो....बुरा काम करने का लाइसेन्स मिल गया। धर्म स्थल पर जाओ....सिर झुकाओ ....सब कुछ माफ। धर्म की परिभाषा सभी ने अपनी अपनी सुविधा के अनुसार बना ली। धर्म आवरण हो गया अपने अंदर के विकार छिपाने का। मन के मैल दबाए रखने का। ईर्ष्या को ढाँपने का। अंदर से धार्मिक होना और धर्म का आवरण रखना दोनों बहुत अलग हैं। अंदर से धार्मिक होने का अर्थ है सभी प्रकार के विकार से मुक्त हो जाना .....या लगभग विरक्त हो जाना। अंदर धर्म है तो फिर कैसा क्रोध....किस से जलन....किसके प्रति शिकायत....हो ही नहीं सकती। जब रोम रोम  में धर्म है तो फिर किसी के कटु वचन इतने शक्तिशाली नहीं हो सकते जो उसके मन को भेद सके.... उसे विचलित कर सकें....उसे धर्म पथ  से डिगा सकें। नस नस में....चिंतन में...वाणी में...जब धर्म का वास हो तो उसकी जिव्हा पर आने वाला हर शब्द मधु हो जाएगा। कटु विचार उसके पास ठहर ही नहीं पाएगा। पर शर्त ये कि धर्म उसके अंदर हो। कितने ही ज्ञानी,पंडित,धार्मिक व्यक्ति देखे हैं जो बात बात पर आपा खो देते हैं। बहुत हैं जो ऐसी ऐसी कठिन पूजा करते हैं इसके बावजूद उनके अंदर की दुर्भावना नहीं जाती....भेदभाव नहीं निकलता....तेरा मेरा से दूर नहीं होते। धार्मिक पुस्तकों बड़ी श्रद्धा से पढ़ेंगे...धूप बत्ती करेंगे....पुस्तक बंद...बात समाप्त। कितने लोग हैं जो उस पुस्तक में लिखे शब्दों को अपने आचरण में ले पाते हैं। घर बार छोड़ कर सुबह आते हैं गौ की सेवा कर पुण्य अर्जित करने के लिए...जिसमें सभी देवी देवताओं का निवास बताते हैं....इसके बावजूद कौन लोग हैं जिन्होने अपने अंदर के क्रोध,ईर्ष्या,कपट,छल को अपने से दूर किया हो। असल में हम केवल धर्म की चादर ओढ़कर धार्मिक बने हुए हैं। धर्म को मन के अंदर तो आने ही नहीं देते। मन के अंदर जब धर्म का प्रवेश हो गया तो फिर खुद से मिलाप हो जाएगा। जब खुद से मिलन हो गया तो फिर किस पर क्रोध...किस से ईर्ष्या...किस से भेदभाव...क्या तेरा और क्या मेरा। खुद भी निर्मल और जो संपर्क में आया वह भी निर्मल। यही तो धर्म है। मन निर्मल है तो फिर कोई पराया रहा ही नहीं। तुलसी बाबा ने रामचरित मानस में कहा भी है....निर्मल मन जन सो मोही पावा....मोहे कपट छल छिद्र ना भावा। बात  एकदम स्पष्ट है। कहीं कोई घुमाव नहीं। जिस बात के लिए तुलसी दास जी के राम जी मना करते हैं वहीं हमारे अंदर है....छल ...कपट। थोड़ा या ज्यादा। केदारनाथ हो या बद्री नाथ कोई भी तीर्थ ऐसा नहीं जो इससे मुक्त हो। फिर कभी न कभी तो परिणाम भी ऐसे ही होंगे जैसे हुए हैं। हमारा क्या थोड़े दिन याद रखेंगे  फिर वैसे का वैसा। जो सकुशल आ गए वे ईश्वर के लिए मंगल गीत गाएंगे और जो वहीं समा गए उनके परिजन यही सोचेंगे कि पता नहीं किस बात की सजा मिली। जीवन ना पहले कभी रुका ना अब रुकेगा।

Thursday, June 20, 2013

गुड्डू बड़ी परेशान है...चन्नी को भी टेंशन

श्रीगंगानगर-गुड्डू बड़ी परेशान है। चन्नी को भी टेंशन है। दिक्षा की भागादौड़ी बढ़ी है। गुड्डू,चन्नी,दिक्षा ना तो किसी पोलिटिकल पार्टी की  लीडर है और ना ही तबादले के मारे कोई अफसर। इन पर महंगाई का भी कोई भार नहीं है। ना ही इनको सुराज संकल्प या संदेश यात्रा के लिए कोई भीड़ जुटानी है। ये तो कान्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां हैं। इनको परेशानी अपनी रोज़मर्रा की पढ़ाई से नहीं। परेशानी है नित नए प्रोजेक्ट से। प्रोजेक्ट भी ऐसे जैसे ये छोटी छोटी कक्षाओं के विद्यार्थी ना होकर किसी प्रोफेशनल कॉलेज की पढ़ाकू हों। इनको सम सामायिक घटना पर खबर लिखनी है। खबर भी वो  जिसमें कब,क्यूँ,कहां,कैसे,क्या,कौन जैसे प्रश्नों के जवाब हों। साथ में हो सरकारी पक्ष...जनता की राय, जिन पर घटना का अच्छा बुरा प्रभाव पड़ा हो। ये सब कोई एक दो पैरे  में नहीं लिखना। किसी स्कूल ने बच्चों को 15 पेज लिखने के निर्देश दिये हैं तो किसी ने बीस। सब कुछ अंग्रेजी में होना चाहिए। अब ये विद्यार्थी लगी हैं खबर के जुगाड़ में। जिनका कोई मीडिया में जानकार...रिश्तेदार है वे उनसे मदद ले रहें हैं। कोई टीचर से लिखवा रहा है। बाकी सब के लिए इंटरनेट जिंदाबाद। जहां सब कुछ उपलब्ध है। हिन्दी में लो या अंग्रेजी में। अब जब ये बच्चे इंटरनेट से खबर ले प्रोजेक्ट पूरा कर भी लेंगे तो क्या होगा? इनका ज्ञान बढ़ेगा ! इनका मीडिया में सम्मान बढ़ेगा ! या ये इनके लिए कोई बेहतर भविष्य का दरवाजा खोल देगा ! कुछ भी तो नहीं होने वाला। बच्चे रुचि से नहीं बोझ  मानकर इसको जैसे तैसे निपटाएंगे। ना तो उसे ये पढ़ने की कोशिश करेंगे ना समझने की। जरूरत भी क्या है उसको जानने की....समझने की। गर्मी की छुट्टी का काम है.....बस,पूरा करना है। खुद खबर लिखने वाला शायद की कोई हो। चूंकि बच्चे कोनवेंट स्कूल के हैं इसलिए अभिभावकों की इतनी हिम्मत नहीं कि वे टीचर से इस बारे में कुछ पूछ सकें। ना वे प्रिंसिपल के पास जाकर बच्चों की टेंशन दूर करने की कह सकते हैं। कहेंगे,पूछेंगे तो शान जाने का डर....क्योंकि स्कूल वालों को ये कहने में कितनी देर लगती है...ऐसा है तो बच्चे को किसी दूसरे स्कूल में डाल दो। इसलिए लगे हैं सब के सब बच्चों के साथ उस बड़ी खबर का जुगाड़ करने में जो उन्हे स्कूल टीचर को देनी है। पता नहीं टीचर भी क्या सोच कर 15 पेज की खबर लिखने को देते हैं। कितने टीचर होंगे जो खुद 15 पेज की वैसी खबर लिख सकें जैसी उन्होने बच्चों से मांगी है। मीडिया से जुड़े व्यक्ति को भी 15 पेज की खबर लिखने के लिए बहुत कुछ सोचना और करना पड़ता है। ये तो अभी बच्चे हैं।


Saturday, June 15, 2013

गर्भ में ही शुरू हो जाती है जीव की यात्रा

श्रीगंगानगर- जीव के गर्भ में आते ही उसकी यात्रा शुरू हो जाती है। जीवन पूरा करने के बाद उसकी अंतिम यात्रा। इन दोनों यात्राओं के बीच जीव ना जाने कैसी कैसी यात्रा करता है। कोई काम की होती है कोई बेकाम ही। कई बार यात्रा निरर्थक हो जाती है तो बहुत दफा पूरी तरह सार्थक। कभी यात्रा का उद्देश्य होता है कभी ऐसे ही इंसान घूमता है बे मतलब ही। कभी अंदर की यात्रा तो कभी बाहर की। जीवन चलने का नाम जो है....जब जीवन में विभिन्न यात्राएं करनी ही है तो फिर सुराज  संकल्प यात्रा क्यों नहीं! यह वसुंधरा राजे सिंधिया की यात्रा है। इसके साथ साथ सभी बीजेपी नेताओं की अपनी अपनी यात्रा भी है अलग से। नेता छोटा हो या बड़ा सब यात्रा पर निकले हैं। कई दिनों से यात्रा कर रहा है हर नेता। जरूरी भी है। नहीं करेगा तो मंजिल पर कैसे पहुंचेगा। चलना तो पड़ेगा....एक गाना भी  तो है...तुझको चलना होगा,....तुझको चलना होगा। इसलिए चल रहे हैं....यात्रा कर रहे हैं। तो शब्द कह रहे हैं...सबकी अपनी अपनी यात्रा...इन नेताओं की यात्रा कहाँ जाकर रुकेगी ये वे खुद जानते हैं...या यात्रा के माध्यम से जान लेंगे। क्योंकि यात्रा से बहुत कुछ जाना जा सकता है। कितने ही विदेशियों ने  हिंदुस्तान को जानने के लिए यहाँ की यात्रा की। पहले विद्यार्थियों को देशाटन पर ले जाया  जाता था ताकि वे देश के बारे में जान सकें।.....तो साबित हुआ कि यात्रा जानकारी बढ़ाती  है। इसलिए नेता निकले हैं अपनी अपनी यात्रा पर। वसुंधरा राजे बड़ी हैं तो उनकी यात्रा भी बड़ी। ऐसी ही स्थानीय नेताओं के बारे में कहा जा सकता है। जो जैसा नेता...जिसकी  जैसी पकड़ उसकी वैसी ही यात्रा। किसी ने दो गली नापी   किसी ने दो गांव। कोई दो घर ही जा पाया कोई घर घर गया। किसी ने यात्रा पर काफिला बनाया किसी के साथ कोई नहीं आया। कोई यात्रा पर निकला तो सभी को बुला लिया। कोई ऐसा भी था जो बुलाने तो गया लेकिन लोग नहीं आए...आए तो दूसरे स्टेशन पर उतर गए। कितने ही यात्रा पूरी होने से पहले ही थक जाएंगे। हिम्मत छोड़ देंगे। अकेले रह जाएंगे। उनके साथी दूसरे के साथ चले जाएंगे। किसी की यात्रा आनंदमय होगी किसी की कष्टदायक। यात्रा होती ही ऐसी है। इसलिए फिलहाल जो किसी की यात्रा में शामिल नहीं हैं वे सभी की यात्रा का अवलोकन करें। देखें, किसका सांस  फूला। कौन सांस भूला। किसकी सांस में सांस आई। किस की धड़कन बढ़ी। किसकी लौटी। कौन थका। कौन बैठा। कौन कम है....किसमें दम है। याद रहे, ये छोटी छोटी यात्रा वसुंधरा की बड़ी यात्रा में विलीन हो जाएगी। ठीक वैसे जैसे नदियां समंदर में समा जाती हैं। समंदर मंथन हुआ तो बहुत कुछ निकला था। अब यात्रा का मंथन होगा। उसमें से टिकट निकलेगी। एक को मिलेगी। बाकी साथ हो जाएंगे या उत्पात मचाएंगे।.....तो यात्रा जारी है...नेताओं की भी और जीव की भी। 

Thursday, June 13, 2013

आडवाणी खुद आले में बैठे और खुद ही उतर गए

श्रीगंगानगर-दशकों पहले घरों की दीवार में कहीं ना कहीं एक या दो आले जरूर हुआ करते थे। आले मतलब छोटा सा खांचा....यह तीन चार फुट की ऊंचाई पर होता। छोटा मोटा सामान रख दिया जाता। संध्या बाती हो जाती। रोशनी के लिए दीया-लालटेन रख देते। इसका  एक और महत्वपूर्ण काम था,वह था शिशु को अपनी गोद में बिठाना। सुबह शाम जब घर की  औरतें काम करती....शिशु बीच बीच में आ परेशान करता तो माँ,ताई,चाची उसे आले में बैठा देती। और तब तक बच्चा आले में ही रहता तब तक की काम नहीं हो जाता। क्योंकि उतर तो सकता नहीं था। उसके बाद उसे बड़े लाड़ से उतारा जाता। बेचारे लाल कृष्ण आडवाणी खुद ऐसे ही आले में जा बैठे। यह आला घरेलू की बजाए राजनीतिक था। अब आडवाणी जी बैठ तो गए। मगर ये भूल गए कि अब वे बूढ़ा गए हैं। हाथ-पैर पहले जैसे नहीं रहे। छलांग मार के उतरने से बचे खुचे दांत टूटने का खतरा था। किसी पार्ट की हड्डी चटक जाती तो जुड़नी भी नहीं थी। उनको आला तो याद रहा लेकिन बुढ़ापे की विवशता याद नहीं रही। खुद तो उतर नहीं सकते थे....दूसरे उतारते तो आले  में जा बैठने की नोबत ही क्यों आती! समय बितने लगा... इंतजार होने लगा कोई आए....लाड़ करे और आले से उतारे। काम निपटाना था इसलिए आडवाणी को आले से उतारने की उतावली किसी को नहीं थी। सब अपने अपने काम में थे। कोई आले में बैठा है तो बैठा रहे। आले में कितनी देर बैठ सकते थे आडवाणी जी। बुढ़ापे का शरीर अकड़ गया। बैठे रहना मुश्किल हो गया। किसको आवाज दें? जो आवाज में आवाज मिला रहे थे वे भी आडवाणी को आले से उतारने में सक्षम नहीं थे। कहने कुहाने से आडवाणी जी किसी तरह खुद ही उतर तो गए...इस चक्कर में खूब चोट लगी। बदन छिल गया। बाहरी की बजाए अंदरूनी चोट अधिक लगी। चोट हृदय तक जा पहुंची। अब चूंकि आले में खुद ही जाकर बैठे थे इसलिए आरोप किस पर लगाते। अब हालत ये कि किसी को ना तो चोट दिखा सकते हैं और ना ही बता। इससे पहले शायद ही किसी नेता के साथ ऐसा हुआ हो। इसके जिम्मेदार खुद आडवाणी ही हैं। सच कहते हैं कहने वाली कि बुढ़ापे में मती मारी जाती है.....सो मारी गई। बैठे बिठाए बुढ़ापा खराब कर लिया। अच्छे भले लोह-पुरुष कहलाते थे। अब बीती हुई बात हो गए। जो रीत गया समझो बीत गया। 

Wednesday, June 12, 2013

राधेश्याम हो या कोई और पार्टी को चाहिए जिताऊ बंदा

 श्रीगंगानगर-कुछ लोग विवादों के साथ ही आगे बढ़ते हैं। बढ़ते भी ऐसे हैं कि विरोधियों का या तो सफाया हो जाता है या उनका विरोध किसी काम का नहीं रहता। ऐसे लोगों में एक नाम है राधेश्याम गंगानगर। श्रीगंगानगर से बीजेपी के विधायक राधेश्याम गंगानगर। जब तक राधेश्याम गंगानगर कांग्रेस में रहे कांग्रेस नेता उन पर कांग्रेस को जेबी संस्था बनाने का आरोप लगाते रहे। राधेश्याम बीजेपी में आए तो बीजेपी वाले भी यही कहते हैं कि राधेश्याम गंगानगर ने बीजेपी को घर की पार्टी बना रखा है। खुल कर कांग्रेस नेता भी नहीं कहते थे....सामने ये बीजेपी वाले भी नहीं कहते। इन्होने बीजेपी से उस समय बगावत की जब बीजेपी को इनकी जरूरत थी। अब ये बीजेपी में नहीं है तब इनको बीजेपी की चिंता है। जब बीजेपी में थे तब तो बीजेपी की बजाए खुद को राजनीति में बनाए रखने की चिंता थी। अब जब वे राजनीतिक रूप से भूले बिसरे हो चुके तब इनको बीजेपी की चिंता सताने लगी। कौन नहीं जानता महेश पेड़ीवाल ने बीजेपी की टिकट पर 1998 में विधानसभा का चुनाव लड़ा। उनकी पत्नी बीजेपी के राज में नगर विकास न्यास की चेयरमें मनोनीत हुई। संजय मूंदडा की भी बीजेपी में काफी इज्जत थी। नरेश मुन्ना भी पार्टी में हैसियत रखते थे। तीनों ने 2009 में पार्टी उम्मीदवार मनमोहन शर्मा के सामने नगर परिषद सभापति का चुनाव लड़ा। बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष हनुमान गोयल की पत्नी संतोष गोयल पर पार्षद के नाते अविश्वास प्रस्ताव पर बीजेपी के खिलाफ वोटिंग करने के आरोप सभी को मालूम है। अब ये कुछ दूसरे भाजपाइयों के साथ बीजेपी के मूल तत्व को बचाने की चिंता करते हैं। सामने तो आते नहीं पर्दे के पीछे बैठक कर बीजेपी नेता राधेश्याम गंगानगर के खिलाफ काम करने की रणनीति बनाते हैं। बीजेपी में राधेश्याम गंगानगर का विकल्प बनने की बजाए इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि टिकट राधेश्याम गंगानगर को ना मिले। इनमें से किसी में इतनी राजनीतिक ताकत नहीं जो बीजेपी की टिकट पर चुनाव जीत सकें। खुद का कोई राजनीतिक वजूद ना होने के बावजूद ये पार्टी में  राधेश्याम गंगानगर के वजूद को हजम नहीं कर पा रहे। ये जानते हैं कि  विधानसभा चुनाव में बीजेपी की कांग्रेस से कड़ी टक्कर होनी है। दोनों पार्टियों में चुनाव जीत सकने लायक बंदों को ही टिकट देना मजबूरी होगी। ऐसे में बीजेपी से बगावत करने वालों की चिंता का क्या होगा कहना मुश्किल है। अगर इनमें से कोई चुनाव जीतने वाला होता तो बीजेपी उसी को टिकट देती। राधेश्याम गंगानगर कौनसा पार्टी का रिश्तेदार है। पार्टी को तो जीतने वाले चाहिए,वो चाहे राधेश्याम हो या कोई और।


Monday, June 10, 2013

देश में मिसाल बनेंगे यहां के पुलिस अधिकारी




श्रीगंगानगर-वो दिन दूर नहीं जब दुनिया भर की पुलिस श्रीगंगानगर पुलिस की कार्य प्रणाली को देखने और समझने के लिए यहां आएगी। वो सुनहरी दिन भी आने ही वाला है जब हमारे श्रीगंगानगर के पुलिस अधिकारी दूसरे देशों में व्याख्यान दे काम करने का ढंग उनको समझाएंगे। कैसा होगा वो दिन। कैसे होंगे वो क्षण...यह सोच कर ही मेरे मन को  रोमांच का अनुभव होने लगता है। पतला दुबला सीना चौड़ा हो जाता है कि हम उस नगर के रहने वाले हैं जिसके पुलिस अधिकारी इतने काबिल है। खुशी है इस बात की कि हम आने वाली पीढ़ी को ऐसी पुलिस सौंप के जा रहें हैं जिसके किस्से,कहानी स्कूल,कॉलेज की किताबों में पढ़ाए जाएंगे। धन्य हो जाएगी हमारी संताने पुलिस अधिकारियों के बारे में पढ़ कर। उनकी काम करने की शैली को जानकार,समझ कर। कानून व्यवस्था की अब नो टेंशन। नई सोच के साथ कानून व्यवस्था बनाए रखने के इंतजाम जिस प्रकर यहां के पुलिस अधिकारी करते हैं वैसा तो दूसरे क्षेत्र में तैनात अधिकारी सोच भी नहीं सकता। हम पहले अपराधी की कार्यप्रणाली को देखते हैं। उसके अपराध करने के तरीके समझते हैं। वारदात को निकट से देखने के लिए उसके होने का इंतजार करते हैं। उसके बाद करते हैं शानदार इंतजाम। सिहाग हॉस्पिटल के पास लगातार कई कार चोरी हुई। पुलिस अधिकारियों ने उस चौक पर परमानेंट पुलिस वाले बैठा दिये टेंट लगाकर। उधर बीकानेर में ज्वेलरी की दुकान लूटी गई। इधर श्रीगंगानगर  हमने उस जगह हथियार बंद जवान लगा दिये जिधर ज्वेलरी की दुकानें हैं। ....फालतू बात नहीं....इससे अधिक चौकसी क्या होगी,वारदात बीकानेर में हुई,सुरक्षा यहां दी गई। सभी को मिलेगी सुरक्षा। सभी के आस पास होंगे पुलिस के हथियार बंद सिपाही। पहले दो चार वारदात तो होने दो। चिंता क्यों करते हो ऐसा  ही दूसरे कारोबारियों के लिए होगा। जिनके यहां चोरी उनको सुरक्षा......जिस क्षेत्र में लूट उधर पुलिस का स्थायी बंदोबस्त। चौकसी पहले नहीं होती.....क्या पता कौन कैसा कहां अपराध करे! अपराध को देख कर,समझ कर ही तो इंतजाम होंगे। इसी तरीके को पूरी दुनिया में लागू किया जाना चाहिए। दुनिया नहीं तो प्रदेश में तो हो ही जाए। इसके लिए यहां के अधिकारियों को दूसरे जिलों में भेजना पड़े तो भेजा जाए। हमारा क्या है, हम तो दिल पर पत्थर रख लेंगे ऐसे अधिकारियों की जुदाई में। लेकिन इनकी काबिलियत पर तो पूरे देश का हक है। तभी देश-दुनिया को पता लगेगा कि थे कोई पुलिस अधिकारी जिनहोने अपनी सोच,नए डिजायन की कार्य प्रणाली,तकनीक से कानून व्यवस्था को संभाला। नई ऊर्जा का संचार किया पुलिस और आम जनता में। तभी तो अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक [प्रशिक्षण] रवीन्द्र सिंह ढिल्लों ने पत्रकारों को कहा कि मैं श्रीगंगानगर पुलिस का टेस्ट लेने नहीं आया। सही है....किसकी हिम्मत है ऐसी अधिकारियों का टेस्ट लेने की जो मिसाल कायम कर रहे हैं।

Monday, June 3, 2013

बी डी अग्रवाल समाज है और अग्रवाल समाज बी डी

श्रीगंगानगर-अग्रवाल लावारिस हैं। अग्रवालों की शासन प्रशासन में कोई पूछ नहीं। अग्रवालों का नेतृत्व होना चाहिए। बीजेपी-कांग्रेस पर टिकट के लिए दवाब बने। अग्रवाल को विधायक बनाना है। अग्रवाल एक दिन सीएम बने। अग्रवाल ये बने....अग्रवाल को वो बनाना है... जैसे उत्साह जनक वाक्यों ने समाज को झकझोरा। चर्चा होने लगी। बैठकों में अग्रवाल जुटने लगे। नई चेतना आई...उम्मीद हुई। नए सपने आंखों में जन्म लेने लगे। उनको पूरा करने के लिए समाज का हर तबका एक मंच पर आया भी। ये कोरी बातें नहीं थीं। केवल कागजी बयान नहीं थे। अपने सरीके भाई बंशी धर जिंदल की अंगुली पकड़ कर पहली बार सार्वजनिक रूप से अग्रवाल समाज में आए बी डी अग्रवाल के धन और समाज की टीम की मेहनत से समाज एकत्रित होने लगा। परिणाम स्वरूप 2010 और 2011 में अग्रसेन जयंती पर समाज ने अपना जलवा दिखाया भी।  समाज बी डी अग्रवाल के झंडे तले आने लगा। सभी का ख्वाब  एक ही था ...राजनीतिक नेतृत्व। सत्ता की बात होने लगी। राजनीति में अपनी ताकत दिखाने की बात होने लगी। विधानसभा चुनाव के लिए टिकट पर हक बुलंद किया गया। 2012 के आते आते बी डी अग्रवाल ने दिशा बदल ली। अग्रवाल समाज को ताकतवर बनाने का घोष करने वाले बी डी अग्रवाल सभी जाति-धर्म के गीत गाने लगे।  दूसरी जतियों को ऐसे गले लगाया जैसे सालों से कोई बिछड़े प्रेमी मिले हों। समाज अवाक रह गया। बोले  कौन! धर्म संकट सामने आ खड़ा हुआ। विरोध की ताकत नहीं। जो असल बात थी वह कब गायब हो गई किसी को पता ही नहीं लगा। जो लक्ष्य अग्रवाल समाज के लिए तय किए गए थे वे बी डी अग्रवाल के हो गए।जो सपना वे अग्रवालों को दिखा रहे थे उसमें उन्होने अपने आप को,बेटी और पत्नी को फिट कर दिया। मतलब ये कि बी डी अग्रवाल ही अग्रवाल समाज हो गया और अग्रवाल समाज बी डी अग्रवाल। ठीक वैसे ही जैसे श्री कृष्ण कहते हैं....मैं सब में हूँ और सब मुझ में हैं। और अब तो नए नए इतिहास लिखे जाने लगे। अपने आप को आन बान शान का प्रतीक बताने वाले अग्रवाल क्या करें....पहले भी कुछ नहीं कर सके। और अब भी करने के लिए कुछ बचा नहीं सिवाए हां,हां करने के। समाज की परिभाषा कोई ताकतवर आदमी कब बदल दे कोई नहीं जानता।


Saturday, June 1, 2013

सेवा भावना हो तो कांडा जैसी समर्पण हो तो जिंदल जैसा


 श्रीगंगानगर-राम घर चल। राम घर से दुकान जा। दुकान पर काम कर। खाली मत बैठ। कभी पांच पैसे के कायदे में पढ़ी इन लाइनों का अर्थ आज उस समय समझा जब न्यास ऑफिस गया। सच्ची, अशोक गहलोत किसी और को चेयरमेन बना देते तो वह काम नहीं होना था जो अब हो रहा है। गहलोत ने एक ज्योति कांडा को लगाया। अब चंद्र प्रकाश जिंदल भी आ गए। अपने घर का करोड़ों रुपए का चलता हुआ कारोबार छोड़ जन जन की सेवा करने वाले कोई विरले ही होते हैं। इतना समय तो कोई अपने बच्चों को नहीं देता। ये दोनों लगें हैं नगर का रूप निखारने के लिए। श्री गहलोत जी जानते थे ज्योति जी की क्षमता। उनको ज्ञान था इस बात का कि इनको चेयरमेनी मिली तो फिर मिनी चेयरमेन खुद ये बना देंगे। पारस होते ही ऐसे हैं। अब कोई इनको मिनी चेयरमेन,एक के साथ एक फ्री या ओएसडी कहें क्या फर्क पड़ता है। ऐसी टिप्पणी करने वाले जलोकड़े होते हैं। खुद तो कुछ करते नहीं। कोई दूसरा करे तो बातें बनाते हैं। हे महामानवो! लोग कुछ भी कहें आप अपने कर्म से विचलित मत होना। पथ से हटना  मत।  जिस पथ पर चल रहे हो वो डगमगाने नहीं चाहिए। कर्म पथ पर किसी की सुने बिना बढ़ने वाला ही इतिहास बनाता है। आप तो कंधे से कंधा और कदम से कदम मिलकर एक दूसरे का साथ दो। यह साथ इस नगर के लिए है....आपका तो इसमें कोई स्वार्थ ही नहीं। यह नगर और इसका न्यास कितना सौभाग्यशाली है कि श्री गहलोत ने एक चेयरमेन बनाया। जिसे चेयरमेन बनाया उसकी सूझबूझ देखो....नगर के विकास के प्रति ललक देखो....इतिहास बनाने का संकल्प देखो...एक चेयरमेनजैसे को  अपने साथ रख लिया। है। ताकि श्री गहलोत के सपने कम समय में पूरे हो सकें। ऐसा तभी होगा जब कोई काम करने वाला हो। इससे पहले कोई ऐसा चेयरमेन नहीं हुआ जिसने अपने साथ एक चेयरमेन और रखा हो। जो उसी की तरह पूरा दिन काम करे। कुछ नहीं बाकी सब के सब जन प्रतिनिधि,अफसर किसी कर्म के नहीं। अरे!अपने साथ एक और बंदे को नहीं रख सकते। जिससे काम  जल्दी से जल्दी हो। सरकार को यह कानून ही बना देना चाहिए कि ऐसी पोस्ट उसी व्यक्ति को मिलेगी जिसके पास एक बंदा ऐसा हो जो उसके जैसा ही समर्पित भाव से काम कर सके। जो मॉडल श्रीगंगानगर न्यास ने पेश किया है वह अनोखा,अनूठा है। इसे पूरे प्रदेश में क्या पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए।