Wednesday, June 26, 2013

धर्म के आवरण से धार्मिक बन गए हम सब

श्रीगंगानगर-हिंदुस्तान में पाप  की कोई चिंता नहीं। रामायण के पाठ करो...पाप मुक्त। गंगा स्नान करो पापों से छुटकारा। तीर्थ यात्रा करो....बुरा काम करने का लाइसेन्स मिल गया। धर्म स्थल पर जाओ....सिर झुकाओ ....सब कुछ माफ। धर्म की परिभाषा सभी ने अपनी अपनी सुविधा के अनुसार बना ली। धर्म आवरण हो गया अपने अंदर के विकार छिपाने का। मन के मैल दबाए रखने का। ईर्ष्या को ढाँपने का। अंदर से धार्मिक होना और धर्म का आवरण रखना दोनों बहुत अलग हैं। अंदर से धार्मिक होने का अर्थ है सभी प्रकार के विकार से मुक्त हो जाना .....या लगभग विरक्त हो जाना। अंदर धर्म है तो फिर कैसा क्रोध....किस से जलन....किसके प्रति शिकायत....हो ही नहीं सकती। जब रोम रोम  में धर्म है तो फिर किसी के कटु वचन इतने शक्तिशाली नहीं हो सकते जो उसके मन को भेद सके.... उसे विचलित कर सकें....उसे धर्म पथ  से डिगा सकें। नस नस में....चिंतन में...वाणी में...जब धर्म का वास हो तो उसकी जिव्हा पर आने वाला हर शब्द मधु हो जाएगा। कटु विचार उसके पास ठहर ही नहीं पाएगा। पर शर्त ये कि धर्म उसके अंदर हो। कितने ही ज्ञानी,पंडित,धार्मिक व्यक्ति देखे हैं जो बात बात पर आपा खो देते हैं। बहुत हैं जो ऐसी ऐसी कठिन पूजा करते हैं इसके बावजूद उनके अंदर की दुर्भावना नहीं जाती....भेदभाव नहीं निकलता....तेरा मेरा से दूर नहीं होते। धार्मिक पुस्तकों बड़ी श्रद्धा से पढ़ेंगे...धूप बत्ती करेंगे....पुस्तक बंद...बात समाप्त। कितने लोग हैं जो उस पुस्तक में लिखे शब्दों को अपने आचरण में ले पाते हैं। घर बार छोड़ कर सुबह आते हैं गौ की सेवा कर पुण्य अर्जित करने के लिए...जिसमें सभी देवी देवताओं का निवास बताते हैं....इसके बावजूद कौन लोग हैं जिन्होने अपने अंदर के क्रोध,ईर्ष्या,कपट,छल को अपने से दूर किया हो। असल में हम केवल धर्म की चादर ओढ़कर धार्मिक बने हुए हैं। धर्म को मन के अंदर तो आने ही नहीं देते। मन के अंदर जब धर्म का प्रवेश हो गया तो फिर खुद से मिलाप हो जाएगा। जब खुद से मिलन हो गया तो फिर किस पर क्रोध...किस से ईर्ष्या...किस से भेदभाव...क्या तेरा और क्या मेरा। खुद भी निर्मल और जो संपर्क में आया वह भी निर्मल। यही तो धर्म है। मन निर्मल है तो फिर कोई पराया रहा ही नहीं। तुलसी बाबा ने रामचरित मानस में कहा भी है....निर्मल मन जन सो मोही पावा....मोहे कपट छल छिद्र ना भावा। बात  एकदम स्पष्ट है। कहीं कोई घुमाव नहीं। जिस बात के लिए तुलसी दास जी के राम जी मना करते हैं वहीं हमारे अंदर है....छल ...कपट। थोड़ा या ज्यादा। केदारनाथ हो या बद्री नाथ कोई भी तीर्थ ऐसा नहीं जो इससे मुक्त हो। फिर कभी न कभी तो परिणाम भी ऐसे ही होंगे जैसे हुए हैं। हमारा क्या थोड़े दिन याद रखेंगे  फिर वैसे का वैसा। जो सकुशल आ गए वे ईश्वर के लिए मंगल गीत गाएंगे और जो वहीं समा गए उनके परिजन यही सोचेंगे कि पता नहीं किस बात की सजा मिली। जीवन ना पहले कभी रुका ना अब रुकेगा।

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