श्रीगंगानगर। बेशक अपने लाडले-लाडलियों को महंगी बाइक और कार दिलवाओ, लेकिन इसके साथ-साथ उनको सडक़ पर चलने-चलाने का सलीका भी सिखाया जाना जरूरी है। जिनको ना तो रेड लाइट की परवाह है, न ड्यूटी पर खड़े कांस्टेबल का डर। उम्र के खुमार में उनको अपनी जि़न्दगी की फिक्र तो होने का सवाल ही नहीं। उन माता-पिता का भी ख्याल उनको नहीं है, जिन्होंने कितने लाड से उनको पाला है। कितने सपने वो अपने इन लडक़े-लड़कियों में देख रहे हैं। इनके सपने पूरे हों, ये समाज में प्रतिष्ठित होकर स्थापित हों, इनका अपना घर-संसार हो, इसके लिए अपनी क्षमता से, कभी-कभी तो क्षमता से आगे जाकर उनकी लगभग हर डिमांड पूरी करते हैं। ऐसे बच्चों को जब अपने परिवार की चिन्ता नहीं तो दूसरों की होने का प्रश्न ही कहां पैदा होता है। चाहे बाइक, कार खरीदने के नियम हों न हों लेकिन इनको सडक़ पर चलाने के नियम-कायदे जरूर होते हैं। कुछ सरकार के बनाये हुए और कुछ शहर की व्यवस्थाओं के अनुरूप अलिखित, अघोषित। जैसे ऑटोमेटिक लाइट्स सिग्नल, चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक सिपाही, जेब्रा कॉसिंग आदि-आदि। ये सब इसलिए ताकि वाहन चालक खुद भी सुरक्षित रहें और दूसरों को भी उनकी लापरवाही, मस्ती से वाहन चलाने की आदत से नुकसान न हो। परंतु अफसोस शहर के हर बड़े-छोटे चौराहे पर, हर वक्त यही हो रहा है। ऐसे लोग रेड लाइट होने के बावजूद तेजी से निकलते हैं, जिससे बड़ी दुर्घटना की आशंका रहती है। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे वाहन चालकों को रोकने की जिम्मेदारी ट्रैफिक पुलिस की है। मगर वाहन चालकों की भी तो होती है कोई जिम्मेदारी, कोई कत्र्तव्य। उनको रेड लाइट पर रुकना चाहिए, जब कांस्टेबल रोकेगा तो न केवल उन्हें बल्कि उनके परिजनों को भी टेंशन हो जायेगी। हद है ऐसे लोगों की भी जिनको यह नहीं पता कि किस साइड में जाने के लिए सडक़ पर कहां चलना चाहिए। जहां मर्जी हो उधर वाहन चलाते हैं और फिर अचानक से इधर-उधर मुड़ जाते हैं। जिससे उनका खुद का जीवन तो संकट में पड़ता ही है, दूसरों को भी परेशानी होती है। दुर्घटना की आशंका बन जाती है। इनको कम से कम इतना तो पता होना ही चाहिए कि बाईं ओर मुडऩे के लिए अपने वाहन को सडक़ के बाईं ओर और दाईं ओर मुडऩे के लिए दाईं ओर रखना पड़ता है। सीधे चलने वाले को अपना वाहन बीच में रखना चाहिए। ऐसा होता नहीं है, क्योंकि यह सब न तो माता-पिता बताते हैं और न ही वे स्कूल-कॉलेज जिनमें ये पढ़ते हैं। सडक़ों पर दिनोदिन भीड़ लगातार बढ़ेगी, बेहतर है हम सब सडक़ पर चलने का सलीका तो कम से सीख ही लें, ताकि हम भी सकुशल रहें और दूसरे भी। साथ में जिंदा रहें हमारे परिवार के सपने।
Friday, September 27, 2013
अजी! कुछ भी दिलाओ, परंतु सलीका तो सिखाओ
श्रीगंगानगर। बेशक अपने लाडले-लाडलियों को महंगी बाइक और कार दिलवाओ, लेकिन इसके साथ-साथ उनको सडक़ पर चलने-चलाने का सलीका भी सिखाया जाना जरूरी है। जिनको ना तो रेड लाइट की परवाह है, न ड्यूटी पर खड़े कांस्टेबल का डर। उम्र के खुमार में उनको अपनी जि़न्दगी की फिक्र तो होने का सवाल ही नहीं। उन माता-पिता का भी ख्याल उनको नहीं है, जिन्होंने कितने लाड से उनको पाला है। कितने सपने वो अपने इन लडक़े-लड़कियों में देख रहे हैं। इनके सपने पूरे हों, ये समाज में प्रतिष्ठित होकर स्थापित हों, इनका अपना घर-संसार हो, इसके लिए अपनी क्षमता से, कभी-कभी तो क्षमता से आगे जाकर उनकी लगभग हर डिमांड पूरी करते हैं। ऐसे बच्चों को जब अपने परिवार की चिन्ता नहीं तो दूसरों की होने का प्रश्न ही कहां पैदा होता है। चाहे बाइक, कार खरीदने के नियम हों न हों लेकिन इनको सडक़ पर चलाने के नियम-कायदे जरूर होते हैं। कुछ सरकार के बनाये हुए और कुछ शहर की व्यवस्थाओं के अनुरूप अलिखित, अघोषित। जैसे ऑटोमेटिक लाइट्स सिग्नल, चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक सिपाही, जेब्रा कॉसिंग आदि-आदि। ये सब इसलिए ताकि वाहन चालक खुद भी सुरक्षित रहें और दूसरों को भी उनकी लापरवाही, मस्ती से वाहन चलाने की आदत से नुकसान न हो। परंतु अफसोस शहर के हर बड़े-छोटे चौराहे पर, हर वक्त यही हो रहा है। ऐसे लोग रेड लाइट होने के बावजूद तेजी से निकलते हैं, जिससे बड़ी दुर्घटना की आशंका रहती है। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे वाहन चालकों को रोकने की जिम्मेदारी ट्रैफिक पुलिस की है। मगर वाहन चालकों की भी तो होती है कोई जिम्मेदारी, कोई कत्र्तव्य। उनको रेड लाइट पर रुकना चाहिए, जब कांस्टेबल रोकेगा तो न केवल उन्हें बल्कि उनके परिजनों को भी टेंशन हो जायेगी। हद है ऐसे लोगों की भी जिनको यह नहीं पता कि किस साइड में जाने के लिए सडक़ पर कहां चलना चाहिए। जहां मर्जी हो उधर वाहन चलाते हैं और फिर अचानक से इधर-उधर मुड़ जाते हैं। जिससे उनका खुद का जीवन तो संकट में पड़ता ही है, दूसरों को भी परेशानी होती है। दुर्घटना की आशंका बन जाती है। इनको कम से कम इतना तो पता होना ही चाहिए कि बाईं ओर मुडऩे के लिए अपने वाहन को सडक़ के बाईं ओर और दाईं ओर मुडऩे के लिए दाईं ओर रखना पड़ता है। सीधे चलने वाले को अपना वाहन बीच में रखना चाहिए। ऐसा होता नहीं है, क्योंकि यह सब न तो माता-पिता बताते हैं और न ही वे स्कूल-कॉलेज जिनमें ये पढ़ते हैं। सडक़ों पर दिनोदिन भीड़ लगातार बढ़ेगी, बेहतर है हम सब सडक़ पर चलने का सलीका तो कम से सीख ही लें, ताकि हम भी सकुशल रहें और दूसरे भी। साथ में जिंदा रहें हमारे परिवार के सपने।
Sunday, September 22, 2013
सच छोड़ ,झूठ को अपना,आगे बढ़,ज़िंदगी बना
श्रीगंगानगर-सबका प्रिय बन। सच मत बोल। झूठ को अपना। उसी का हाथ पकड़। उसी के साथ चल। आगे बढ़। जिसके पास साम,दाम,दंड,भेद हैं उससे डरना सीख। उनकी चरण वंदना कर। उनकी चरण रज अपने माथे पर लगा धन्य हो। नित उठ उनके दर्शन का लाभ प्राप्त कर। सच की जीत वाली बात किताबों में ही है। सच नामक प्राणी की जीत पता नहीं कब होगी?झूठ हर पल जीत कर सच को अंगूठा दिखाता है। सच को खुद
को प्रमाणित करना पड़ेगा। झूठ को प्रमाण की कोई जरूरत ही नहीं होती। इसलिए,हे बंधु! ये नया ज्ञान अपने दिमाग में रख।
तरक्की कर। मौज मार। यही जीवन है। इसी में जिंदगी है। आनद है। उमंग है। जीवन का
सार है। बाकी सब तो बेकार है। ये है तो भाव है, पैसा है, साधन है। तो आगे बढ़। सेठ,दानवीर
बी डी अग्रवाल की बात पर गौर कर,
जो ये कहते हैं कि उनके पिता भगत सिंह के साथ थे। यह कितने गौरव की बात है
श्रीगंगानगर की इस धरा के लिए। अहा! हम भगत सिंह जैसे अद्वितीय क्रांतिवीर के साथी
के दर्शन कर सके। लाला लाजपत राय के साथ जेल में रहे व्यक्ति के
निकट रह सके। [उनके हवाले से प्रकाशित एक आलेख में यह जिक्र है कि साइमन कमीशन जब
भारत आया [1928] तब लाला लाजपत राय के साथ उनको
भी गिरफ्तार कर लिया गया था। वे भी 52 दिन जेल में
रहे थे।] वैसे हमने तो अब तक यही
पढ़ा था कि लाला जी लाठियों के वार से
घायल हुए जिस कारण उनका निधन हो गया था। हमने गलत पढ़ा होगा। क्योंकि सेठ
जी की बात को झूठ कहने का कोई प्रश्न ही नहीं है। कैसे अज्ञानी है इतिहासकार
जिन्होने इस बालक की देश भक्ति का कहीं जिक्र ही नहीं किया। जो आज सेठ मेघराज
जिंदल के नाम से पूरे क्षेत्र में जाना पहचाना जाता है। इतिहास लिखवाने वाले भी
कितनी भूल कर बैठे! इस सवाल को दिल से निकाल की 1928 में मेघराज जिंदल की उम्र
क्या रही होगी! महान व्यक्तियों के किसी काम पर बारे में
शंका नहीं करनी चाहिए। जो कहा जा रहा है उसे ब्रह्म वाक्य मान। गीता और रामायण समझ।
उम्र को मत देख। भावना को देख। उसको प्रणाम कर। अपने बच्चों को उनके बारे में बता।
जीवन को सफल बना। जैसे बाकी सब बना रहे हैं। हां में हां मिला रहे हैं। वैसे लाला
भोला राम के सबसे बड़े बेटे अगर आज जिंदा होते तो उनकी उम्र लगभग सौ साल होती। चलो
बड़े घर की बात है दस साल बढ़ा देते हैं। सेठ मेघराज जी 6 भाई बहिन में सबसे छोटे हैं। इसका
मतलब जब वे लाला लाजपत राय के साथ गिरफ्तार हुए तब वे किशोर थे। कितनी बड़ी बात है।
एक किशोर का 52 दिन तक जेल में रहना।
Sunday, September 1, 2013
पर्दे के पीछे कुछ ना कुछ तो जरूर है
श्रीगंगानगर-आइये, सरकारी हॉस्पिटल में चलें जहां मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास होने वाला है। मंच पर मौजूद हैं प्रदेश कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। उनके अगल-बगल में हैं राष्ट्रीय जमींदारा पार्टी के अध्यक्ष बी डी अग्रवाल विद फैमिली। मतलब कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रही उनकी पत्नी बिमला अग्रवाल,बेटी कामिनी जिंदल। जिले के कांग्रेस नेता बैठे हैं इनके पीछे। क्यों? बात कुछ हजम नहीं हुई। अशोक गहलोत कॉलेज का शिलान्यास करने आए तो मंच पर यही दृश्य बनता है। इसके अलावा और कोई दृश्य हो ही कैसे सकता है। बी डी अग्रवाल दौ सौ करोड़ रुपए से अधिक देंगे तो उसकी खनक ना सुनाई दे ये कैसे संभव है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार फिर लाने के ख्वाब देख रहे अशोक गहलोत का बी डी अग्रवाल से मिलना राजनीतिक विश्लेषकों को अचरज में डाल रहा है। उस बी डी अग्रवाल से जिसने कांग्रेस के खिलाफ अपनी पत्नी और बेटी को चुनाव लड़वाने की तैयारी कर रखी है। चुनाव प्रचार शुरू है। यह कोई साधारण बात नहीं है। कहीं ना कहीं ऐसा कुछ जरूर है जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ है या छिपाया जा रहा है। कुछ ना कुछ तो है जिस पर पर्दा है। क्योंकि मंच पर ऐसा होता नहीं कि विरोधी राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष दूसरी पार्टी के सीएम को खुद के पैसे शुरू होने वाले प्रोजेक्ट के लिए आमंत्रित करे। ये तो संभव है कि कोई सामाजिक संस्था सभी राजनीतिक लोगों को किसी मंच पर एक साथ बैठा दे। परंतु ये होना मुश्किल है कि जो हो रहा है या होने वाला है। सच में यह हो गया तो फिर कलुषित होती राजनीति में एक नई शुरूआत होगी। इसके साथ ही कांग्रेस के कई स्थानीय नेताओं के हाशिये पर जाने का संकट शुरू हो जाएगा। जब सीएम गहलोत शिलान्यास समारोह में बी डी अग्रवाल की तारीफ करेंगे, जो कि उनको करनी ही पड़ेगी, तो फिर उनका क्या होगा जो यहां से कांग्रेस की टिकट मांग रहे हैं। इस कहानी में कहीं न कहीं कोई पेच जरूर है। कोई छिपा हुआ एजेंडा अवश्य है। जो दस सितंबर से पहले या उसी दिन सामने जरूर आएगा। चाहे वह शिलान्यास कार्यक्रम स्थगित होने के रूप में या बी डी अग्रवाल के कांग्रेस मंच पर आने के रूप में। ये नहीं हुआ तो समझो प्रदेश में राजनीति के नए युग की शुरुआत हो गई। बी डी अग्रवाल के बाद डॉ करोड़ी लाल मीणा भी मुख्यमंत्री से मिलने जाएंगे उनको किसी कार्यक्रम में बुलाने के लिए। संभव है वसुंधरा राजे सिंधिया भी इसी बी डी अग्रवाल और डॉ मीणा के पद चिन्हों पर चल पड़े। कितना सुखद होगा यह सब देखना। दो लाइन पढ़ो.... जेब भारी हो तो जमाना साथ आता है, खाली जेब को अब कौन बुलाता है।
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