श्रीगंगानगर। फुफेरे भाई ने
रोक लिया और बोला, तुम अपनी
ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे। मैं हैरान! कैसी ज़िम्मेदारी? पारिवारिक या सामाजिक? मैंने पूछा। अरे नहीं।
पत्रकारिता की, अखबार की, उसने कहा।
पूरा मीडिया सरकारी हॉस्पिटल की पीछे पड़ा रहता है। छोटी से छोटी बात सुर्खियां बन
जाती है। जबकि प्राइवेट होस्पिटल्स के बारे मेँ कोई कुछ नहीं बोलता। जुकाम दिखाने
जाओ तो एक हजार रुपए खत्म। टेस्ट करवाते हैं। कुछ नहीं निकलता। फिर वही टेस्ट।
एक्सरे करवाएंगे। ठीक से उसे देखेंगे भी नहीं कि टीएमटी करवाने को कहेंगे। कई मिनट
तक उसने अपने मन की बात कही। मैंने ये कह कर बात को विश्राम दिया कि पब्लिक भी तो
नहीं बोलती। कहीं से कोई विरोध के स्वर तो उठें। तभी मीडिया आगे बढ़े। हालांकि बातचीत तो समाप्त हो गई, लेकिन उसकी बात मेँ दम था। सोचा, खूब सोचा। परंतु
प्रश्न ये कि लिखा क्या जाए? क्या ये खबर लिखें कि डॉक्टर्स ने अपनी फीस बढ़ा दी। या फिर ये कि
हर प्रकार की जांच के भी अब पहले से अधिक रुपए लगेंगे। पेट दर्द के लिए छोटे से
छोटा अल्ट्रासाउंड दर्द को और बढ़ा देगा, क्योंकि बड़ी राशि देनी
पड़ती है। टीएमटी करवाने मेँ सांस चढ़ जाएगा। ईसीजी का चार्ज धड़कन बढ़ा देगा। कमरों
का किराया होटल की तरह से है। जैसी सुविधा वैसा कमरा। महिलाओं की सेवा भी मेल नर्स
ही करते हैं। लेकिन जवाब फिर भी नहीं मिला। प्रश्न फिर वहीं का वहीं कि खबर आखिर
शुरू कहां से हो? हो किस बात पर। ये न्यूज भी कैसे बने कि
पहले प्राइवेट हॉस्पिटल मेँ मेडिकल की दुकान किसी और की होती थी। मोटे किराए पर।
फिर डॉक्टर पार्टनरशिप करने लगे। अब खुद ही मेडिकल की दुकान खोल लेते हैं। दवाएं
भी अपनी बनवाते हैं। जो कहीं और से मिलती ही नहीं। लेनी ही पड़ेगी। चाहे जो भी कीमत
हो। यूं यो डॉक्टर्स को दिखाने से लेकर ठीक होने तक, हर
स्टेज पर खबर है। लेकिन बनती नहीं। आजकल तो इसी से संबन्धित अनछुई खबर भी है। वो
ये कि अब तो कई संस्थाएं भी नए नए
डॉक्टर्स को लॉन्च करती हैं। उनके लिए
कैंप लगते हैं। कैंसर की जांच वैन आपके घर
तक लाएँगे। साथ मेँ अपने ही भाई, भतीजे, सगे संबंधी किसी कैंसर विशेषज्ञ का पता भी बता देंगे। और क्या चाहिए आपको, बोलो। समाज का भला करने वाली इन
संस्थाओं की खबर क्यूं लिखूँ, जो डॉक्टर्स की मार्केटिंग
करती हैं। उस सज्जन, सर्जन के बारे मेँ लिख कर मैं ही बुरा
क्यूँ कहलाऊं जिसकी एग्जामिनेशन टेबल पर
मर्यादा का हरा पर्दा तक नहीं। जिस कारण पिता को बेटी के वे अंग देखने पड़ते हैं, जिसे कोई पिता नहीं देखना चाहता। डॉक्टर को तो बीमारी के इलाज हेतु
एग्जामिन करने ही पड़ेंगे । सज्जन, सर्जन अपने युवा मेल नर्स
को भी बाहर जाने के लिए नहीं कहता। शहर मेँ रहना है भाई! इसलिए ये खबर भी नहीं बन
सकती। तो फिर क्या खबर बने! ये बात तो पुरानी हो गई कि रात को कोई डॉक्टर किसी
रोगी को नहीं देखता। इसमें शिकायत की बात नहीं। ना ही ये कोई खबर है। मर्जी है डॉक्टर
की। जब इच्छा होगी रोगी को देखेगा। नहीं इच्छा, नहीं देखता।
तो फिर खबर क्या हो? फीस बढ़ाने की बात हो गई। टेस्टिंग भी
ऊपर हो गया। कमरे और दवाइयों की भी चर्चा हो गई। लेकिन कोई खबर तो नहीं बनी ना। हो भी तो
लिखेंगे नहीं । क्योंकि हमें भी तो जाना होता है इनके पास। सामाजिक, आर्थिक रिश्ते हैं हमारे इनसे। अब आम जनता के लिए मीडिया उनसे अपने
रिश्ते तो नहीं बिगाड़ सकता, जिसकी जरूरत कभी भी पड़ सकती है। इसलिए प्राइवेट
होस्पिटल्स वालों के बारे मेँ खबर लिखना कैंसल। ऐसी खबरों के लिए तो सरकारी
हॉस्पिटल है । कुछ भी लिखो। कौन रोकता है। चूंकि उधर भीड़ है,
व्यवस्था नहीं। विश्वास भी कम ही है। सरकार पर विश्वास कम ही होता है। इसलिए हम
जैसों को तो प्राइवेट मेँ आना ही होगा, जब इधर आना है तो कोई
खबर होकर भी नहीं हो सकती है। नमक का हक तो अदा करना ही पड़ता है। इतनी मर्यादा तो
मीडिया मेँ है ही अभी। वैसे भी कहीं आईएमए ने मेरे खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर
मेरे और मेरे परिवार का इलाज ना करने का निर्णय कर लिया तो मीडिया, वीडिया सब धरा रह जाएगा। इसलिए सॉरी भाई जान। प्राइवेट डॉक्टर्स के बारे
मेँ मैं तो कुछ नहीं लिख सकता । दो लाइन
पढ़ो—
हाथ
से ये
वक्त क्या दूर गया ,
मेरा आइना
मेरा ही चेहरा भूल गया।
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