Sunday, October 25, 2015

दो गोल्डन चांस खो दिये गंगानगर के लोगों ने


श्रीगंगानगर। जनता जनार्दन की भावना को वंदन, उनकी श्रद्धा, विश्वास और उम्मीद का अभिनंदन। उनके ही निर्णय का सम्मान करते हुए बात शुरू करता हूँ। गंगानगर में तो राम राज्य है। किसी को कोई  पीड़ा नहीं। दर्द नहीं। अभाव नहीं। तभी तो कहीं से कोई आवाज नहीं आती। दर्द, पीड़ा, तकलीफ, अभाव होता तो कोई ना कोई अवश्य बोलता। किसी को कहता। अपना दर्द सुनाता ।  मगर शहर में सन्नाटा पसरा है। खामोशी का आलम है। इसी माहौल में ये सवाल जरूर किया जाता है कि ये हो क्या रहा है शहर में? चर्चा होती है, शहर लावारिस हो चुका है। कोई कुछ नहीं करता। ना कोई जन प्रतिनिधि बोलता है, ना प्रशासन में कोई काम होते हैं। कहने को तो अपनी अपनी जगह सब हैं। जन प्रतिनिधि भी, प्रशासन भी। मगर हम हैं कि हर बार मौका चूक जाते हैं। स्वाभिमान में लिपटे अपने अहंकार को पुष्ट करते हैं। परिणाम ये होता है कि हमें वो नहीं मिल पाता जो हमारा हक है। विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। मुंह ताकते रहते हैं दूसरों का। बातें बनाते हैं, ये नहीं हुआ। वो नहीं हुआ। ऐसा दो बार तो कर चुके।  एक बार 1993 के विधानसभा चुनाव में और दूसरी बार  2013 के चुनाव में। एक बार राधेश्याम गंगानगर को विजयी बना  कर। एक बार हरा कर। 1993 के चुनाव के समय सब जानते थे कि कांग्रेस उम्मीदवार राधेश्याम का सामना कर रहे बीजेपी के भैरों सिंह शेखावत मुख्यमंत्री बनेंगे। किन्तु हम कहाँ इस बात की परवाह करने वाले थे। दूरदृष्टि तो थी नहीं। विकास की सोच भी आस पास नहीं थी। ये  भी ख्याल नहीं था कि भैरों सिंह शेखावत  के विजयी होने का मतलब है, गंगानगर का महत्व बढ़ना। विकास के नए द्वार खुलना। तरक्की की नई कहानी लिखे जाने की शुरुआत होना। जिस व्यक्ति को एक मत से साथ दे विजयी बनाना था, उसे तीसरे नंबर पर ला पटका। हो गया गंगानगर का कल्याण। बताओ, हम से अधिक नादान और कौन होगा। जिसने घर आए विकास को वापिस भेज दिया। लक्ष्मी को ठोकर मार दी। इस परिणाम का ख्मयाज़ा आज तक भुगत रहा है गंगानगर। मजे की बात है कि हम गंगानगर वाले सबक भी नहीं सीखते, पुरानी घटनाओं से। विश्लेषण नहीं करते। अच्छा-बुरा नहीं सोचते शहर का। चुनाव के समय विकास की सोच नहीं रहती। उसके स्थान पर ये  सोच हावी हो जाती  है कि इस बार हराना किसको है। यही वजह रही कि हमने 2013 में भी वैसा ही कुछ कर दिया जो 1993 में किया था। इस बार राधेश्याम गंगानगर को हरा दिया। वह भी यह जानते हुए कि तमाम समीकरण बीजेपी के पक्ष में हैं। राधेश्याम गंगानगर जीतेंगे तो सौ प्रतिशत केबिनेट मंत्री बनेंगे। कुछ बनेंगे तो गंगानगर में भी कुछ ना कुछ जरूर होगा। मगर हम तो हम हैं। हम जिताने के लिए कम और हराने के लिए अधिक वोट करते हैं। हरा दिया। बैठा दिया घर। इस हार का दर्द आज तक लिए घूम रहे हैं राधेश्याम गंगानगर। कोई और होता तो ऐसे मौके की हार के बाद बिस्तर पकड़ लेता, लेकिन ये जनाब सक्रिय हैं। पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं। अभी तो दो साल हुए हैं। शहर का हाल सबके सामने है। कोई बोल सकता है, लेकिन बोलता नहीं। कोई बोलता है तो उसकी सुनने वाला कोई नहीं। किस को कुछ पता नहीं कि बोलना कैसे है और करना क्या है। यूं तो हर रोज सवेरा होता है, लेकिन इस शहर के लिए सवेरा कब होगा, कोई नहीं जानता। आज चार  लाइन पढ़ो—

मुरदों की बस्ती मेँ जिंदा, कोई तो है 
व्यवस्था की आँख मेँ रड़कता, वोई तो है 
मुरदों को झिंझोड़ता रहता है जब तब 
चिंगारी को आग बनाने वाला वोई तो है। 

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